सरकार की नीयत साफ, नीति में खोट
सुमन
सरकारी फैसलों तथा कार्यक्रमों में अक्सर देखा जाता है कि नीतियां बहुत अच्छी बनती हैं, लेकिन सरकारों की नीयत ठीक नहीं होती, इसलिए नीतियों पर ठीक से अमल नहीं हो पाता, लेकिन पहली बार किसानों के मामले में देखा जा रहा है कि शिवराज सिंह चौहान सरकार की नीयत साफ है लेकिन नीतियों में खोट है। इसलिए किसान आंदोलन की छोटी सी चिंगारी ने इतना विशाल रूप ले लिया कि अन्नदाता के आक्रोश से पूरा प्रदेश जल उठा। अन्नदाता की मौत पर सियासत पूरे देश में होने लगी। सरकार या विपक्ष कोई पीछे नहीं है, इसके बावजूद अभी भी शांति की ओर कदम बढ़ाता अन्नदाता ठगा सा महसूस कर रहा है।
किसान आंदोलन सुलझाने की प्रक्रिया शुरू होने के बाद से ही यह सवाल आम हो गया है कि आखिर सरकार को ऐसी सलाह कौन दे रहा है। मुख्यमंत्री के सारे फैसले जय-जयकार करने वाले हैं, इसके बावजूद दांव उल्टे पड़ रहे हैं। सबसे पहले किसान आंदोलन को भाजपा और संघ समर्थित संगठनों से समर्थन दिलवाया गया, इसके बाद इन्हीं संगठनों के साथ उज्जैन में मुख्यमंत्री की चर्चा कराई गई इसके बाद सरकार की ओर से मीडिया को बताया गया कि किसान आंदोलन समाप्त हो गया। मुख्यमंत्री की नीयत साफ थी वह किसानों का भला करना चाहते थे, लेकिन अफसरशाही द्वारा बनाई गई नीति में खोट था और इसी के चलते आंदोलन समाप्त होने की घोषणा के एक घंटे बाद ही कई संगठनों ने ऐलान कर दिया कि आंदोलन समाप्त नहीं हुआ है। सरकार की गलत नीतियों के चलते मंदसौर, शाजापुर, नीमच, रतलाम के इलाके में आंदोलन पहले किसान बनाम व्यापारी हो गया। सरकार की नीति में खोट होने के कारण आंदोलन की दिशा बदल गई। बिना किसी संगठन की अगुवाई में आंदोलन कर रहे किसान पहले व्यापारियों के खिलाफ एकजुट हुए फिर उन्हें किसान संगठनों के नेताओं का नेतृत्व मिल गया तो वह सरकार के खिलाफ हो गए। किसान सड़क पर आ गए और उनका आक्रोश आम जन-जीवन पर उतर पड़ा। इसके बाद भी प्रदेश के आला अफसर नीतियां ठीक करने के बजाए गलत फैसले लेते रहे। समझौते के दूसरे ही दिन सरकार ने आनन-फानन में कई आदेश जारी कर दिए। एक आदेश में व्यवस्था बनी कि किसानों को मंडियों में पचास फीसदी नगद भुगतान किया जाएगा और पचास फीसदी आरटीजीएस होगा। बाद में पता चला कि वित्तीय नियमों के चलते व्यापारी नगद भुगतान पर टी.डी.एस. काटेंगे। किसान इसके लिए तैयार नहीं हो सकता, क्योंकि एक तो उसे नगदी कम मिलेगी दूसरी तरफ उसके द्वारा आईटीआर दाखिल न किए जाने के कारण कटा हुआ टीडीएस रिफंड नहीं हो पाएगा। यह भी सरकार की नीति में बड़ा खोट है। सरकार ने गर्मी की मसूर का समर्थन मूल्य घोषित कर दिया साथ ही प्याज की खरीदी का आदेश जारी कर दिया यहां भी सरकार की नीयत साफ थी लेकिन नीतियों में खोट थी। खुद किसानों का कहना है कि गर्मी में मसूर की पैदावार बहुत छोटे इलाके में होती है ऐसे में समर्थन मूल्य की घोषणा से प्रदेश भर के किसानों को कोई लाभ नहीं होगा। वहीं प्याज की खरीदी में बड़ी समस्या भंडारण की हो गई। राज्य सरकार के उपक्रम राज्य भंडार गृह निगम ने ही हाथ खड़े कर दिए कि उनके पास प्याज रखने की जगह नहीं है। अफसरों की नीतियां पुनः फ्लाप हो गईं। इस तरह गलत फैसले होते गए और किसानों का आक्रोश बढ़ता गया। मंदसौर में आंदोलन कर रहे किसानों को रोकने के लिए अनुभवहीन युवा आईपीएस अधिकारी को भेज दिया गया, नतीजा सबके सामने है कि पुलिस की गोली से छह किसान मारे गए।
शिवराज सिंह चौहान ने अपने साढ़े ग्यारह साल के कार्यकाल में किसानों के बीच जो इज्जत और प्रतिष्ठा कमाई थी, वह एक मिनट में मिट्टी में मिल गई। बड़ा इंटेलिजेंस नेटवर्क और अफसरों की फौज होने के बावजूद सरकार के लोग किसान आंदोलन की गंभीरता का अंदाजा नहीं लगा पाए, यहां तक कि छह मौतों के बाद भी सरकारी अफसर मुख्यमंत्री को गलत सलाहें देते रहे। गलत सूचनाएं आती रहीं, इसके चलते गृहमंत्री भूपेंद्र सिंह पूरे दिन कहते रहे की पुलिस ने गोली नहीं चलाई। देर रात खुद भूपेंद्रसिंह को स्वीकार करना पड़ा कि गोली पुलिस से ही चली है। मुख्यमंत्री सहित अधिकांश भाजपा नेता और मंत्री कहते रहे कि आंदोलनकारी हिंसा कर रहे हैं, इसलिए वह किसान नहीं असामाजिक तत्व हैं। इसके बाद ही सरकार ने मृतकों के परिजनों को पहले 5 लाख मुआवजा देने की घोषणा कर दी बाद में उसे बढ़ाकर 10 लाख कर दिया गया। देर रात मुआवजे की रकम बढ़ाकर 1-1 करोड़ कर दी गई। एक बार फिर सवाल उठ खड़ा हुआ कि जब आंदोलन करने वाले किसान नहीं असामाजिक तत्व थे तब 1-1 करोड़ का मुआवजा क्यों घोषित किया गया। इसी सवाल को लेकर कांग्रेस के सुप्रीम नेता राहुल गांधी तक मंदसौर आ गए। आंदोलन में कांग्रेस का कहीं कोई पता नहीं था लेकिन सरकार के सलाहकारों ने गलत नीतियां बनाते हुए मुख्यमंत्री से कहलवा दिया कि कांग्रेस की साजिश है इसके चलते मध्यप्रदेश में मृतप्रायः पड़ी कांग्रेस को पुनः संजीवनी मिल गई। नेतृत्व विहीन आंदोलनकारी किसान खुद चलकर कांग्रेस के पाले में आ गया। इसके चलते आंदोलन की आग पूरे प्रदेश में फैल गई। मुख्यमंत्री किसानों के हित में घोषणाओं का अंबार लगाते रहे और आंदोलन तेज होता गया और आग अभी भी सुलग रही है। गलत सलाह देने वालों ने मुख्यमंत्री को भोपाल में उपवास पर बैठा दिया। यहां भी किसानों की बात होते-होते राजनीति होने लगी और अनशन स्थल किसानों की बजाय भाजपा के नेताओं का सम्मेलन स्थल बन गया। मंदसौर में मारे गए किसानों के परिजनों को भोपाल लाकर अनशन स्थल पर ही मुख्यमंत्री से मिलवाया गया और उनसे अनुरोध करवाया गया कि मुख्यमंत्री उपवास तोड़ दें। फिर सवाल उठ खड़ा हुआ कि जिन परिवारों में मौत का मातम है, पीड़ा से उबर पाना असंभव सा है, तेरहवीं भी नहीं हुई है, उस परिवार के लोग कैसे भोपाल आकर मुख्यमंत्री से उपवास तोड़ने का अनुरोध कर सकते हैं। इससे साफ है कि गलत नीतियों के चलते अभी भी गलत फैसले हो रहे हैं। मंदसौर, नीमच, रतलाम के कलेक्टरों को हटाने में पहले तो सरकार ने देरी कर दी उसके बाद जिन अफसरों की पोस्टिंग की गई उन्हें बड़े जिले हैंडिल करने का कोई अनुभव ही नहीं है। इस तरह हर मोर्चे पर सरकार की नीति विफल हो रही है। इसलिए मुख्यमंत्री और सरकार की नीयत साफ होने के बावजूद नीतियों में खोट के कारण किसान आंदोलन की आग सुलगती ही जा रही है।