संघ की चिंता का समन्वय
सुमन “रमन”
संघ की भोपाल में बैठक उसमें सभी अनुषांगिक संगठन शामिल हुए। यूं तो इसे हर साल होने वाली सामान्य समन्वय बैठक माना जा रहा है, लेकिन बैठक में जिस तरह के मुद्दे सामने आए उससे साफ लग रहा है कि मध्य प्रदेश में बीजेपी के घटते जनाधार संघ से जुड़े संगठनों के बीच आपसी विवाद, संघ और भाजपा के कामों की जमीनी हकीकत से दूरी जैसे मुद्दों ने संघ को चिंता में डाल दिया । इस बैठक में संघ की अपनी रिपोर्ट का नजारा भी दिखलाई पड़ा। संघ की अपनी रिपोर्ट कहती है कि प्रदेश में भाजपा का जनाधार घट रहा है। कुछ समय पहले आदिवासी बाहुल्य झाबुआ संसदीय क्षेत्र के चुनाव में भाजपा की हार से संघ की रिपोर्ट को और बल मिला। हाल ही में मैहर सहित तीन नगरीय निकाय के चुनाव में सत्तारूढ़ पार्टी की हार ने संघ को और अलर्ट कर दिया। हालांकि बीजेपी के कर्ताधर्ता इन हारों के बावजूद ये मानने को तैयार नहीं है कि पार्टी मध्यप्रदेश में कमजोर हुई है। वह हर हार को सियासी जामा पहनाना चाह रहे हैं। इसलिए मैदानी हकीकत को जानने वाले संघ को भाजपा को पाठ पढ़ाना जरूरी हो गया था। संभवतः इसीलिए संघ द्वारा आयोजित समन्वय बैठक में उन मुद्दों को बेहद चिंता के साथ उठाया गया जो 2018 के चुनाव में भाजपा पर भारी पड़ सकते हैं।
संघ की समन्वय बैठक गुरुवार को केरवा डेम स्थित संघ से जुड़े शैक्षणिक संस्थान शारदा विहार में हुई। इसमें 40 अनुषांगिक संगठनों ने भाग लिया। इसमें सभी संगठनों ने कामकाज की रिपोर्ट देने के साथ ही अगले एक साल का रोडमैप क्या है की जानकारी भी दी। इसमें किसान संघ ने ही यह कहते हुए कि “किसी भी निर्णय के बारे में उनसे सलाह भी नहीं ली जाती” सरकार को ही कठघरे में खड़ा कर दिया। कुछ अन्य संगठनों ने भी मंत्रियों मुख्यमंत्री के न मिलने की शिकायत दर्ज कराई। तमाम विषयों पर चिंता व्यक्त की गई। आरएसएस का काम मूल रूप से भाजपा का मार्गदर्शन करना है। आम धारणा भले ही हो कि संघ बीजेपी सरकारों को रिमोट कंट्रोल की तरह चलाता है। लेकिन बीजेपी खुद दावा करती है कि संघ उसका मार्गदर्शक है इसलिए अब ये सवाल इतना लाजमी है कि मध्यप्रदेश में भाजपा के घटते जनाधार को लेकर संघ इतना चिंतित क्यों है? उत्तर साफ है पिछले 13 साल से सत्ता के गलियारों में संघ की जिस तरह तूती बोल रही है उसमें समाज सेवा और त्याग की बात करने वाली आरएसएस की सोच बदल रही है। इसलिए संघ चाहता है कि बीजेपी सत्ता में बनी रहे। तभी तो भोपाल स्थित संघ का प्रदेशिक मुख्यालय समिधा सहित प्रदेश भर के कार्यालयों में मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों का आना-जाना लगा रहेगा। बीजेपी की सरकार न होने पर संघ के अधिकारियों को छोटे-मोटे काम के लए नौकरशाही के चक्कर लगाने पड़ते हैं, वहीं अपनी पार्टी सत्ता में तो अधिकारियों या मंत्रियों की तो छोड़िये सीधे मुख्यमंत्री को संघ कार्यालय बुला कर आदेश दे दिया जाता है।
संघ की विचारधारा वाले शैक्षणिक संस्थान लगातार खुलते जा रहे हैं। सरकार पोषित इन संस्थानों से न सिर्फ संघ की वैचारिकता आगे बढ़ रही है बल्कि संघ से जुड़े लोगों के “अपने” इन संस्थानों में एडजस्ट किए जा रहे हैं। पहले से चल रहे संस्थानों में भी संघ की वैचारिकता को पौषित करने वाले तथाकथित विद्वान और शिक्षाविद् पदस्थ किए जा रहे हैं। मामला चाहे माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय का हो या फिर अन्य संस्थानों का। आए दिन आरोप लगते हैं कि संघ से जुड़े रिश्तेदारों को नौकरियों में भरा जा रहा है। इसके अलावा संघ से जुड़े लोगों को मध्य प्रदेश में तमाम सम्मानों से नवाजा जा रहा है। आए दिन तमाम आयोजनों के जरिए संघ की बौद्धिकता को जनता तक पहुंचाने की कोशिश की जा रही है। ये सब तभी संभव हो पा रहा है, जब बीजेपी सत्ता में है। इससे लगता है कि संघ धीरे-धीरे सुविधाभोगी होता जा रहा है। इसलिए वो चाहता है कि बीजेपी के हाथ में सत्ता की चाबी बनी रहे। संभवतः यही कारण है कि बीजेपी की सत्ता में वापसी के लिए बीजेपी से भी ज्यादा संघ चिंतित नजर आ रहा है।
ये बात अलग है संघ अपने मूलभूत मुद्दों को दरकिनार करता जा रहा है, चाहे वह हिन्दुत्ववाद का हो, राम मंदिर हो अथवा गौरक्षा या आदिवासियों की चिंता ये सब हाशिए पर हो गए हैं। संघ की रोज लगने वाली शाखा भी कम ही हो गई है। संघ का सामाजिक सरोकार इन्हीं मुद्दों पर था जिनको वह हाशिए पर डाल रहा है। आदिवासियों और पिछड़े इलाकों में संघ की ओर से तमाम कार्यक्रम चलाए जाते हैं। सेवा भारती, वनवासी कल्याण, सरस्वती शिशु मंदिर जैसे प्रकल्प पिछड़े इलाकों में न सिर्फ लोगों का भला कर रहे हैं बल्कि संघ की पैठ भी बनाते हैं। संघ अगर चाहे तो अपनी सरकार होने का फायदा उठा कर इन प्रकल्पों को और बेहतर कर सकता है। ताकि इन क्षेत्रों में जन कल्याण और विकास के कार्यक्रम और ज्यादा बेहतर हो सकें। लेकिन समन्वय बैठक में संघ की चिंता जिन मुद्दों पर ज्यादा थी उससे लगते है कि संघ के एजेंडे में थोड़ा तो बदलाव हो रहा है। सुविधाभोगी हो रहे संघ के लोग शायद न समाज का भला कर पाएंगे और न ही खुद संघ का। ऐसा न हो संघ के हाथ सत्ता की चाबी तो रह जाए लेकिन समाज हाथ से छिटक जाए।