मीडिया के सियासी टूलकिट बन रहे सत्यपाल मलिक
जम्मू कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने जिस अंदाज में पुलवामा घटना का जिक्र अपने बहुचर्चित इंटरव्यू में किया है, वह देश की प्रशासनिक और सियासी व्यवस्था पर चोट करता है। तमाम तरह के सवाल पूरे सिस्टम पर खड़े होते हैं।
अगर मलिक की सारी बातों को सच मान लिया जाए तो सवाल उठता है कि क्या हमारे शासन-प्रशासन में इतनी संवेदनहीनता है। हमारी सियासी व्यवस्था क्या इतनी सतही हो गई है कि जवानों की शहादत भी इस तरह चर्चा में आएगी। सच जो भी हो लेकिन शक के कटघरे में सबसे ज्यादा सत्यपाल मलिक ही खड़े पाए जाते हैं। राष्ट्रपति शासन वाले राज्य में क्या राज्यपाल इतना अधिकार विहीन होता है कि जवानों की सुरक्षा के लिए बंदोवस्त न कर सके। क्या वह इतना कमजोर होता है कि उसे देश की सुरक्षा में लगे बलों के मुखिया यह तक न बताएं कि जवानों के परिवहन के लिए हवाई जहाज नहीं दिया जा रहा है। अगर ऐसा नहीं था तो राज्यपाल ने उस समय क्यों मुंह नहीं खोला। क्या आपको अपनी कुर्सी जवानों की सुरक्षा से ज्यादा प्यारी थी। आज आपको कहीं नहीं पूछा जा रहा है तो आप वह सच बोल रहे हैं जिसे झूठ बनाए रखने में आप भी दोषी हैं। यह सारा कथानक यह साबित करने लगता है कि आप कहीं टूल किट तो नहीं बन रहे हैं। राजनीति में कुछ लोग टूल्स के तौर पर इस्तेमाल होते हैं और कुछ लोग खुद को टूल्स के रूप में पेश कर इस्तेमाल किए जाने की दावत देते हैं। सत्यपाल मलिक दूसरी कैटेगरी में आते हैं। यह अलग बात है कि जो कीमत वे अपने लिए चाहते हैं, वह कोई दल देने को तैयार नहीं है। सपा, रालोद और कांग्रेस के लिए 2024 के आम चुनाव में प्रचार करने की स्वघोषणा के बाद भी कहीं से कोई तव्वजों नहीं मिली तो वे भाजपा और मोदी के खिलाफ मीडिया के टूल्स बनने के लिए तैयार हो गए। उनकी बातों को वही आज सबसे अधिक महत्व दे रहे हैं जो कभी उनके बड़बोलेपन का मजाक उड़ाते थे।
देश के प्रमुख जाट नेताओँ में शुमार सत्यपाल मलिक को मोदी सरकार ने बहुत सोच समझ कर जम्मू कश्मीर भेजा था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चाहते थे कि घाटी में ऐसा राज्यपाल हो जो बिना किसी से डरे फैसले लिया करे और उन पर अमल करे। सत्यपाल मलिक वह सब करने की कोशिश भी की, लेकिन इससे मिली सफलता और चर्चाओँ को वे अपनी उपलब्धि मान बैठे। घाटी में शांति औऱ सुरक्षा की स्थिति में जो सुधार हुआ, उसके लिए उन्होंने खुद की पीठ थपथपा ली। इस पर किसी को ऐतराज नहीं हो सकता है, लेकिन सवाल उठता है कि अच्छा अच्छा गप करने वाले को खराब खराब थू करने का अधिकार कैसे दिया जा सकता है। किसी भी तंत्र का फ्री हैंड प्रभारी होने वाले व्यक्ति को विफलता और सफलता दोनों की जिम्मेदारी खुद लेनी पड़ेगी। सत्यपाल मलिक अब गलतियों की जिम्मेदारी दूसरों पर डालने की कोशिश कर रहे हैं। करण थापर को दिए गए उनके इंटरव्यूर का एक यही जिस्ट आम आदमी की समक्ष में आता है। असल में सतपाल जी की सियासी जमीन खिसक रही है। वे इस समय उन्हें बड़े मुकाम तक पहुंचाने वाली भाजपा के खिलाफ ही जहर उगल रहे हैं, लेकिन भाजपा के खिलाफ पश्चिमी उत्तर-प्रदेश में जो भी जाट राजनीति के अगुआ हैं उनको मलिक की जरूरत नहीं। राष्ट्रीय लोकदल के नेता जयंत चौधरी अब सियासी पगड़ी खुद संभालने लगे हैं। सतपाल मलिक 2004 में जयंत के पिता अजीत चौधरी के खिलाफ लोकसभा का चुनाव लड़ चुके हैं। ऐसे में रालोद उन्हें जगह देने में ऐतराज कर रहा है। इसलिए सवाल उठ रहा है कि कहीं सत्यपाल मलिक सिर्फ मीडिया के टूलकिट तो नहीं बन रहे हैं। इस बात में अगर थोड़ी भी सच्चाई है तो यह लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा है। सियासी वोट बैंक की दम पर बड़े नेता बनने वाले अगर ऐसे ही टूलकिट बनते रहे तो जनता का भरोसा पूरे तंत्र से टूट जाएगा।