देश के बड़े सियासी परिवारों की जमीन हिल गई इस चुनाव में
खरी खरी डेस्क
नई दिल्ली, 25 मई। लोकसभा चुनावों ने इस बार कई इतिहास रच दिए तो कई मिथक तोड़ दिए। देश के दिग्गज सियासी परिवारों की जमीन इस चुनाव के परिणामों ने हिल दी। गांधी परिवार से लेकर लालू यादव तक कई सियासी परिवारों को करारा झटका लगा। सिसायी परिवार अजेय कहे जाने वाले अपने गढ़ों में हार गए।
गांधी परिवार: अमेठी में राहुल की हार गांधी परिवार को बड़ा झटका
इस चुनाव ने गांधी परिवार को बड़ा झटका दिया है। गांधी परिवार की सरपरस्ती में कांग्रेस पूरे जोश और दमखम के साथ चुनाव मैदान में उतरी, लेकिन उसे बुरी तरह शिकस्त का सामना करना पड़ा। गांधी परिवार को देश में कांग्रेस की करारी हार से बड़ा झटका शायद अमेठी सीट हारने से लगा है। गांधी परिवार का गढ़ कही जाने वाली अमेठी सीट पर कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी की हार ने दुनिया की सियासत और मीडिया का ध्यान अपनी ओर खींचा है। देश में लोकसभा की दो सीटें रायबरेली और अमेठी को कांग्रेस के लिए सबसे सुरक्षित माना जाता है। ऐसे में अमेठी सीट हारना पूरी कांग्रेस और विशेषकर गांधी परिवार की सियासत के लिए खतरे की घंटी है। अमेठी में राहुल गांधी को बीजेपी उम्मीदवार स्मृति ईरानी ने 55 हज़ार वोटों से हराया है। ये झटका कांग्रेस के लिए देश भर में उसकी बुरी हार से भी बड़ा है। साल 2014 में कांग्रेस को 44 सीटों पर जीत मिली थी और ऐसे वक्त में भी राहुल गांधी ने स्मृति ईरानी को एक लाख वोटों के अंतर से हराया था। पिछले चुनाव की तुलना में कांग्रेस ने देश में भले ही आठ सीटें बढ़ा ली हों लेकिन अपना गढ़ उसके हाथ से फिसल गया। अमेठी सीट और गांधी परिवार का रिश्ता बहुत पुराना है। साल 1980 में संजय गांधी ने यहां से चुनाव जीता और उनकी मौत के बाद 1981 में हुए उपचुनाव में अमेठी ने राजीव गांधी को सांसद बनाया। इसके बाद राजीव गांधी ने 1984, 1989 और 1991 में इस सीट से जीत दर्ज की। साल 1991 और 1996 में गांधी परिवार के करीबी माने जाने वाले कैप्टन सतीश शर्मा ने इस सीट पर जीत दर्ज की। इसके बाद 1998 में बीजेपी उम्मीदवार संजय सिंह को जीत मिली लेकिन 13 दिन में ही अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के गिर जाने के बाद साल 1999 में दोबारा चुनाव हुए तो सोनिया गांधी अमेठी से सांसद बनीं। साल 2004 से राहुल गांधी इस सीट से चुनाव लड़ रहे हैं और तीन बार अमेठी से सांसद रह चुके हैं। ये राहुल गांधी के सियासी करियर की पहली हार है।
सिंधिया परिवारः पहली बार गुना में हारा है सिंधिया परिवार
मध्यप्रदेश की गुना लोकसभा सीट को सिंधिया राजपरिवार की सीट माना जाता है। गुना की जनता से हमेशा सिंधिया परिवार का साथ दिया। यहां के मतदाताओं ने यह कबी नहीं देखा कि सिंधिया परिवार का कोई भी सदस्य किस पार्टी से चुनाव मैदान में है। इसलिए सिंधिया परिवार के लोग किसी भी दल से गुना से चुना लड़े तो जीते जरूर। गुना में हुए कुल 20 चुनाव में से 14 चुनाव सिंधिया परिवार के शख़्स ने ही जीता। ज्योतिरादित्य सिंधिया की दादी विजय राजे सिंधिया ने कांग्रेस, स्वतंत्र पार्टी और बीजेपी के टिकट पर भी चुनाव लड़ चुकी हैं, वहीं पिता माधव राव सिंधिया पहले जनसंध और फिर कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े और जीते। पिता माधवराव सिंधिया के निधन के बाद साल 2002 में हुए उपचुनाव से ज्योतिरादित्य ने राजनीति में कदम रखा। गुना सीट से ये उनका पांचवा टर्म था लेकिन दो पुश्तों से गुना में जीतने वाले सिंधिया परिवार को इस बार जनता ने बड़ी हार दी है। ज्योतिरादित्य सिंधिया गुना सीट से एक लाख 25 हज़ार वोटों से हार गए। उन्हें भाजपा के एक सामान्य से प्रत्यासी केपी सिंह यादव ने हरा दिया। इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि केपी सिंह कुछ महीनों पहले तक कांग्रेस में और सिंधिया के साथ थे। उन्हें तब सिंधिया के साथ सेल्फी खिंचाने में भी मशक्कत करनी पड़ती थी।
Iमुलायम परिवार: कन्नौज का गढ़ भी नहीं बच सका
देश के बड़े सियासी कुनबों में गिने जाने वाले मुलायम सिंह यादव के परिवार को अपने गढ़ कन्नौज में पराजय का सामना करना पड़ा। कन्नौज में मुलायम की पुत्रवधू डिंपल यादव का हार का सामना करना पड़ा। बीजेपी उम्मीदवार सुब्रत पाठक ने उन्हें 12 हज़ार से ज़्यादा वोटों से हरा दिया। कन्नौज को समाजवादी राजनीति का ठीहा कहा जाता है। समाजवाद की राजनीति का सबसे बड़ा चेहरा माने जाने वाले राम मनोहर लोहिया ने 1967 में चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। मुलायम सिंह यादव 1999 में इस सीट से सांसद का चुनाव लड़े। इसके बाद साल 2000 से लेकर 2012 तक तीन बार अखिलेश यादव इस सीट से चुनाव जीतकर सांसद बने। उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के लिए 2012 में उन्हें ये सीट छोड़नी पड़ी।उनके बाद उनकी पत्नी डिंपल यहां से चुनाव लड़ीं और जीत हासिल की। इसके बाद साल 2014 में डिंपल यादव अपनी सीट बचाने में कामयाब रहीं लेकिन 2019 की मोदी लहर उन पर इतनी भारी पड़ी की वो कन्नौज जैसी अपनी सुरक्षित मानी जाने वाली सीट तक नहीं बचा पाईं।
लालू यादव परिवार: पाटिलपुत्र में साख़ नहीं बचा पाईं मीसा
लालू प्रसाद की बेटी मीसा भारती बिहार की पाटलिपुत्र सीट पर बीजेपी उम्मीदवार राम कृपाल यादव से 39 हज़ार वोटों से हार गईं। पाटलिपुत्र सीट का इतिहास ज़्यादा पुराना नहीं है, साल 2008 से अस्तिव में आई इस सीट पर पहला चुनाव साल 2009 में हुआ। तब आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव इस सीट पर चुनाव लड़े लेकिन जेडीयू के रंजन प्रसाद यादव से उन्हें हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद साल 2014 में इस सीट पर मीसा भारती को टिकट दिया गया। इस सीट से टिकट ना मिलने पर आरजेडी के कद्दावर नेता राम कृपाल यादव ने बीजेपी का दामन थाम लिया और बीजेपी के टिकट पर पाटलिपुत्र से चुनाव लड़ा। मीसा भारती अपनी ही पार्टी के पुराने साथी राम कृपाल से लगभग 40 हज़ार वोटों से हार गईं। इस बार वो इस सीट पर अपनी जीत दर्ज कराने के इरादे से उतरीं लेकिन फिर राम कृपाल यादव ने अपनी पुरानी जीत दोहराते हुए उन्हें लगभग पुराने मार्जिन से ही हरा दिया है।IMAGES
चौधरी परिवार: विरासत की साख़ नहीं बचा पाए अजित और जयंत
उत्तप्रदेश की मुज़्जफ़्फरनगर सीट पर राष्ट्रीय लोकदल के प्रमुख चौधरी अजित सिंह को बीजेपी उम्मीदवार संजय बालियान ने महज 6500 वोटों के अंतर से हरा दिया है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीति में बड़ा चेहरा माने जाने वाले अजित सिंह इस चुनाव में अपनी सीट नहीं बचा सके। देश के पांचवे प्रधानमंत्री रहे चौधरी चरण सिंह के बेटे अजीत सिंह जाट समुदाय पर अच्छी पकड़ रखते हैं। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में कृषि मंत्री और मनमोहन सरकार में उड्डयन मंत्री रहे अजीत सिंह और उनकी पार्टी के लिए ये एक बड़ा झटका है। मुज़्जफ़्फरनगर से हार अजित सिंह के लिए नयी नहीं है, साल 1971 में चौधरी चरण सिंह ने मुज़्जफ़्फरनगर से अपना पहला चुनाव लड़ा और उन्हें भी हार का सामना करना पड़ा था। ना सिर्फ़ अजित सिंह बल्कि उनके बेटे जयंत चौधरी भी बागपत सीट नहीं बचा सके। बीजेपी के सत्यपाल सिंह ने उन्हें लगभग 23 हज़ार वोटों से हरा दिया। हालांकि चौधरी परिवार की पारंपरिक सीट बागपत के लिए उनका चेहरा नया नहीं है. इस सीट से चौधरी चरण सिंह 1971 के बाद तीन बार सांसद रहे वहीं उनके बेटे अजित सिंह छह बार इस सीट से जीत हासिल रह चुके हैं। लेकिन साल 2014 में बीजेपी के सत्यपाल सिंह ने ये सीट बीजेपी के खाते में डाल दी और इस बार भी चौधरी परिवार अपने गढ़ को नहीं बचा सका।
चौटाला परिवार: पारिवारिक कलह से हरियाणा में हालात खराब
देश के सबसे युवा सांसद का रिकॉर्ड दर्ज करने वाले दुष्यंत चौटाला को इस चुनाव में हार का सामना करना पड़ा है। हरियाणा की हिसार सीट से दुष्यंत चौटाला को बीजेपी उम्मीदवार बृजेंद्र सिंह ने तीन लाख से ज़्यादा वोटों से हराया है। राज्य की सभी 10 सीटों पर बीजेपी को जीत हासिल हुई है और अब राज्य की राजनीति में कभी कांग्रेस और बीजेपी को कड़ी चुनौती देने वाला चौटाला परिवार पूरे सीन से ग़ायब सा नज़र आने लगा है। इंडियन नेशनल लोकदल यानी इनेलो का चुनावों में बड़े नुकसान का सिलसिला इस बार भी जारी रहा। इसकी बड़ी वजह चौटाला परिवार में कलह को माना जाता है। चौधरी देवीलाल को भारत की राजनीति में किंगमेकर माना जाता था। देवीलाल राज्य में दो बार मुख्यमंत्री रहे। चंद्रशेखर सरकार में उप प्रधानमंत्री रहे। उनके बेटे ओम प्रकाश चौटाला भी राज्य के मुख्यमंत्री रहे। परिवार की लड़ाई में साल 2018 में इनेलो टूटी और जननायक जनता पार्टी यानी जेजेपी का गठन हुआ। दरअसल ओम प्रकाश चौटाला ने अपने बेटे अजय चौटाला को पार्टी से निकाल दिया और फिर जेजेपी बनी। साल 2014 में इनेलो के टिकट पर जीत हासिल करने वाले दुष्यंत इस बार अपनी पार्टी के दम पर चुनाव नहीं जीत सके। राज्य में जेजेपी और आम आदमी पार्टी ने गठबंधन किया लेकिन चौटाला परिवार को इससे भी कोई फ़ायदा नहीं हुआ।