दलितों के प्रति चिंता दिखाने वाले लोकसभा में कोरम तक पूरा नहीं कर पाए
नई दिल्ली। दलितों से जुड़ी जब भी कोई घटना होती है तो पूरे देश की सियासत में उबाल सा आ जाता है। सत्ता दल और विपक्षी दल सड़कों पर इस तरह व्यवहार करते हैं मानों उन्हें दलितों की चिंता करने से बड़ा कोई काम नहीं है, लेकिन उनकी चिंता में कितनी गंभीरता है, इसकी सच्ची लोकसभा में दलितों के मुद्दे पर बहस के दौरान सामने आ गई। इतने गंभीर विषय पर चर्चा थी, लेकिन कोरम के अभाव में बहुत देर तक चर्चा शुरू ही नहीं हो सकी। ऐसा लग रहा था कि दलितों पर अत्याचार के मुद्दे पर प्रधानमंत्री जिस तरह सदन के बाहर बोल रहे हैं, से देखते हुए सदन में गंभीर चर्चा होगी लेकिन गंभीर चर्चा करने वालों के पास सदन में समय पर पहुंचने तक का समय नहीं था।
भोजन अवकाश के बाद लोकसभा की कार्रवाई शुरू हुई तो बहुत देर तक कोरम पूरा नहीं हो पाया। काफी देर तक सदन की घंटी बजती रही और सदस्य संख्या कम बनी रही। सदन में सिर्फ सत्ता पक्ष कम नहीं था बल्कि विपक्ष की बेंचें भी खाली थीं। सदन में ना तो कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे मौजूद थे और ना ही राहुल गांधी। बाद में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने सफाई देते हुए कहा कि कांग्रेस नेता खड़गे को किसी ज़रूरी काम से बेंगलुरु जाना पड़ा, जबकि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की तबीयत खराब चल रही है।
चर्चा शुरू होने से पहले सदन में सिर्फ 70 सांसद मौजूद थे जिसमें विपक्ष के 38 सदस्य शामिल थे। चर्चा के दौरान बोलते हुए गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने चुनौती देते हुए कहा कि उनकी सरकार के कार्यकाल के दौरान दलितों पर हमलों की घटनाओं में कमी आई है। उनका कहना था कि जहां साल 2013 में दलितों पर हमलों के 39,346 मामले दर्ज किए गए, वहीं 2014 में इसकी संख्या 40,300 थी जबकि साल 2015 में कुल 38,564 मामले दर्ज किए गए।
लोक सभा में एक पल ऐसा भी आया जब वित्त राज्य मंत्री अर्जुन राम मेघवाल को बोलना था मगर वो सदन में मौजूद नहीं थे। मगर इस चर्चा के दौरान तेलगु देशम पार्टी के रविंद्र बाबू पांडूला ने सबको खामोश कर दिया जब उन्होंने सदन में पूछा कि क्यों दलितों की लड़ाई सिर्फ दलितों को ही लड़नी पड़ रही है।
इससे निश्चित ही उन लोगों को निराशा ही होगी जो लोक सभा की चर्चा पर नज़र रखे हुए थे। कुछ दलित चिंतकों को लगता है कि जिस तरह विपक्ष और सत्ता पक्ष के लोग सदन में दलितों पर हो रहे हमले जैसे मुद्दे पर ग़ैर ज़िम्मेदाराना रवैया लेकर गए थे, वो बहुत निराशाजनक था। समाज शास्त्री प्रोफेसर बद्री नारायण कहते हैं कि संविधान बनाने वालों का भला हो जिन्होंने लोक सभा और विधानसभा की सीटें ओबीसी, अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों के लिए आरक्षित कीं। वरना उनका प्रतिनिधित्व नहीं के बराबर ही रहता। नारायण का कहना है कि सांसदों के बर्ताव से एक बार तो ऐसा लगने लगा जैसे कि उन्हें ही संसद पर विश्वास नहीं रह गया है। प्रोफेसर बद्री नारायण को लगता है कि देश में एक 'नए वर्ग' का जन्म हुआ है जिसमें संपन्न दलित भी शामिल हैं जिन्हें दलितों के मुद्दों में कोई रुचि नहीं है। वहीं एक अन्य दलित चिंतक प्रोफेसर लोखांडे मानते हैं कि दलित वोट बैंक तक ही सीमित हैं, चाहे कोई भी राजनीतिक दल क्यों ना हों।