कबीरा खड़ा बाजार में--समाज के पाखंड पर चोट करता नाटक

Jun 19, 2019

खरी खरी संवाददाता

भोपाल। कबीर जयंती के मौके पर सोमवार को स्वराज संस्थान संचालनालय द्वारा प्रख्यात साहित्यकार भीष्म साहनी के बहुचर्चित नाटक ‘कबीरा खड़ा बाजार में’ का मंचन शहीद भवन में किया गया। युवा निर्देशक निजाम पटेल के निर्दशन में मंचित नाटक दर्शकों को बांधे रखने और उन पर अपनी छाप छोड़ने में सफल रहा। यह नाटक समाज के पाखंड पर खुली चोट करता है।

स्व.भीष्म साहनी के जिन नाटकों में समाज की कुरीतियों और विसंगतियों को खुलकर दिखाया गया है, उनमें कबीरा खड़ा बाजार में प्रमुख है। इसका पहला मंचन अप्रैल 1981 में दिल्ली में त्रिवेणी के ओपन थिएटर में एम.के. रैना के निर्देशन में हुआ था। तब भीष्म साहनी जी ने खुद इसके मंचन में सहयोग किया और शो पूरा देखा भी था। तब से लेकर आज तक कई निर्देशकों ने इस नाटक के देश विदेश में कई शो किए हैं, लेकिन नाटक आज भी समाज की खामियों पर चोट करता हुआ एकदम नया लगता है। माही सोशियो कल्चरल सोसायटी के बैनर तले शहीद भवन में करीब बीस कलाकारों की टीम के साथ निजाम पटेल ने नाटक को उसके पारंपरिक रंग में दिखाने की पूरी कोशिश की और सफल रहे। कबीर की जिंदगी और उनके दर्शन को भीष्म साहनी ने जिस खूबसूरती के साथ कागज पर उतारा है, उतनी ही खूबसूरती के साथ इसे मंच पर प्रस्तुत किया गया। नाटक में कबीर के जरिए समाज के पाखंड, कुरीतियों-विसंगतियों, जात-पात, छुआ-छूत, ऊंच-नीच, ढोंग-आडंबर और भेदभाव के खिलाफ जमकर आवाज उठाई गई है।

नाटक में कबीर के कवित्तों और दोहों का उपयोग किया जिसके चलते नाटक प्रभावी हो गया। भोजपुरी मे बोले गए कई संवाद दर्शकों पर प्रभाव छोड़ते हैं। नाटक बताता है कि कबीर समाज के हर वर्ग से भिड़ जाते हैं। नाटक में यह बताने की कोशिश की गई है कि कबीर जुलाहे के बेटे भले थे, लेकिन उन्हें समाज के हर वर्ग में व्याप्त कुरीतियों से कोफ्त होती थी। इसलिए वे पंडितों और पुजारियों के साथ मुल्ला और मौलवियों को भी आड़े हाथों लेते हैं। मां नीमा बेटे कबीर को खूब समझाती है कि यह काशी है यहां सोच समझकर बोला करो लेकिन कबीर नहीं मानते हैं। वे मां को समझा लेते हैं कि उन्होंने तो किसी के कुछ नही कहा बस गलत बात होते देख एक कवित्त पढ़ा था। मां कहती है कि मस्जिद के सामने ऐसा कवित्त नहीं पढ़ना चाहिए तो कबीर हाजिर जवाबी में कह देते हैं कि जब कवित्त पढ़ा तब मस्जिद के सामने नहीं था। पिता नूरा परेशान रहते हैं कि कबीर कुछ काम धंधा करे तो घर का चूल्हा जले, लेकिन कबीर को घर के चूल्हे से ज्यादा चिंता समाज को ठीक करने की थी। जुलाहे का बेटा होने के कारण कोई नहीं चाहता कि कबीर धर्म कर्म की बात करें, यहां तक कि माता पिता भी सूत का थान बाजार में बेचने पर ही जोर देते हैं। लेकिन कबीर का हरफनमौला अंदाज उन्हें सारी दुनियादारी से दूर करता है। हर कोई कबीर के खिलाफ होता है, यहां तक कि उनके पिता भी, लेकिन मां हमेशा उनके साथ होती है। जब पिता और गांव के अन्य लोग कबीर की शिकायत करते हैं तब भी अंदर से दुखी होकर भी मां कहती है कि उनका बेटा दोस्तों के साथ बैठकर भांग धतूरा तो नहीं पीता, सिर्फ शास्तार्थ ही तो करता है। कबीर का यह शास्त्रार्थ ही तो समाज के पाखंड पर चोट करता है, चाहे वह कोई सा भी समाज हो। इसलिए सभी कबीर के खिलाफ खड़े हो जाते हैं और उनका विरोध करते हैं। लेकिन कबीर की अपनी अलग ही दुनिया है, जिसमें वह खुलकर कहते हैं कि कबीरा खड़ा बाजार में मांगे सब की खैर न काहू से दोस्ती न काहू से बैर..।

मंच पर- इस नाटक में अभिनय करने वालों में कबीर बने अजय श्रीवास्तव, कोतवाल- निजाम पटेल, लोई- जूली प्रिया, कायस्थ- गणेश धुर्वे, रैदास- विकास सिरमोलिया, महंत, सिपाही- सईद उद्दीन, महंत, ग्रामीण- आरफा कुरैशी, भिखारी- सुनील गोटिल, शेख, सेना -आदित्य करतारिया, पीपा- अदनान खान, बशीरा- अंगद घेटे, मां- उषा यादव, सिपाही- इकबाल हिन्दुस्तानी, अलसमद, सिकंदर लोधी- प्रखर सक्सेना मुख्य रहे। इनके अलावा नागरिक एवं मंडली के रूप में रवि मौर्य, फराज, खान, सुफियान- जितेंद्र अहिरवार, दारैन खान, जीशान भी अपने अभिनय से दर्शकों को बांधे रखने में सफल रहे।