सियासी मोहरा बन गया रिजर्व बैंक

Jan 19, 2017

सुमन रमन

मोदी सरकार का नोटबंदी का फैसला प्रधानमंत्री द्वारा तय पचास दिन की समय सीमा को पार कर चुका है लेकिन न व्यवस्थाएं सुधरीं न विवाद बंद हुए। अब लग रहा है कि मोदी सरकार ने यह फैसला भले ही वित्तीय कारणों से लिया हो लेकिन पूरा मामला सियासी रंग में रंग गया है। अभी पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव हैं इसलिए यह आशंका बनी है कि नोटबंदी का मामला किसी न किसी तरह गर्माता रहेगा। इसलिए अब लग रहा है कि केंद्र सरकार ने यह फैसला पूरी सो समझ के साथ नहीं लिया। इसके चलते सरकार की किरकिरी तो हुई साथ ही देश में अव्यवस्थाओं का माहौल बन गया और उससे भी बड़ी बात कि भारतीय रिजर्व बैंक जैसे स्वायत्त संस्थान की साख दांव पर लग गई।

नोटबंद के विवाद में बुधवार को दो बातें साथ हुईं पहली कांग्रेस ने पूरे देश में रिजर्व बैंकों के सामने प्रदर्शन किया और रिजर्व बैंक के गवर्नर संसद की स्थाई समिति के सामने पेश हुए। कांग्रेस या कोई भी राजनैतिक दल आए दिन किसी न किसी मुद्दे पर प्रदर्शन करता ही रहता है और संसदीय समितियों के सामने पेशियां होती रहती हैं। लेकिन इन दोनों मामलों में मोहृरा भारतीय रिजर्व बैंक बना। रिजर्व बैंक एक स्वायत्त संस्थान है जो नीतिगत फैसले खुद करता है, लेकिन जिस तरह नोटबंदी का मामला हुआ उससे सभी को लग रहा है कि फैसले मोदी सरकार ले रही है और रिजर्व बैंक उन्हें लागू कर रहा है। शायद इसी के चलते कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम अली आजाद यह आरोप लगाते हैं कि आरबीआई ने अपनी स्वायत्तता गंवा दी है और यह सरकार का रबर स्टांप बन कर रह गया है। उन्होंने आरबीआई गवर्नर उर्जित पटेल के इस्तीफे की भी मांग की है। शायद यह पहला मौका होगा जब रिजर्व बैंक पर इस तरह के आरोप लग रहे हैं। इसके पहले सीबीआई जैसे स्वायत्त संगठनों पर सरकार का पिट्ठू होने के आरोप लगते रहे हैं। लेकिन देश की आर्थिक दिशा और दशा तय करने वाली रिजर्व बैंक जैसी संस्थाएं
इससे बची रही हैं।

रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर उर्जित पटेल संसद की स्थाई समिति के सामने तमाम सवालों के जबाव स्पष्ट रूप से नहीं दे पाए। उन्होंने यह सब भले ही बैंक की नीतिगत गोपनीयता बनाए रखने के लिए किया हो या फिर जानकारी के अभाव में, लेकिन इसका संदेश यह गया कि वह प्रधानमंत्री के दबाव में बहुत सारी चीजें या तो छुपाना चाहते हैं या जानते नहीं। कांग्रेस के नेता वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति में रिजर्व बैंक की तमाम नीतिगत जानकारियां सार्वजनिक हो जाने की आशंका थी। इस बात को शायद कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व प्रधानमंत्री तथा समिति के सदस्य डॉ. मनमोहन सिंह समझ गए थे, इसलिए वे कांग्रेसी तथा समिति का सदस्य होने के बावजूद कई मौकों पर आरबीआई गवर्नर का बचाव करते नजर आए। जब एक सदस्त ने आरबीआई गवर्नर से सवाल किया कि अगर पैसा निकालने की मोदी की रोक हटा दी जाती है तब क्या अव्यवस्था पैदा हो जाएगी, इस पर पूर्व आरबीआई गवर्नर डॉ. मनमोहन सिंह ने आरबीआई गवर्नर उर्पित पटेल को सलाह दी कि आपको इस सवाल का जबाव नहीं देना चाहिए। समिति के सामने आरबीआई गवर्नर के साथ आर.बी.आई. के कई अधिकारी आर्थिक मामलों के सचिव शक्तिकांत दास, देश के राजस्व सचिव हंसमुख अधाई, आईसीआईसीआई बैंक की प्रमुख चंदा कोचर, पीएनबी की सीईओ तथा स्टेट बैंक और ओरियंटल बैंक के तमाम अधिकारी भी मौजूद थे। पूरे समय सवाल-जबाव सिर्फ नोटबंदी को लेकर होते रहे और पूरे मामले की राजनीतिक दिशा ढूंढने की कोशिश की जाती रही। एक तरह से यह साबित करने की कोशिश होती रही कि आरबीआई जैसी स्वायत्त संस्था सिर्फ सरकार के इशारे पर काम कर रही है।

रिजर्व बैंक गवर्नर को अभी संसद की लोकलेखा समिति के सामने भी पेश होना है। यह समिति भी कांग्रेसी नेता के.वी. थामस की अध्यक्षता में है। जाहिर है कि वहां भी आरबीआई गवर्नर को ऐसे ही सवालों के जबाव देने होंगे, जिससे यह ध्वनित हो कि रिजर्व बैंक की साख पर बट्टा लग रहा है।

   कांग्रेस ने नोटबंदी के फैसले पर देश के तमाम राज्यों की राजधानियों में रिजर्व बैंक के सामने प्रदर्शन किए। कांग्रेस के नेताओं ने वही आरोप खुल कर लगाए जो समिति में खुल कर नहीं लग सकते थे। कांग्रेस नेताओं का यह सवाल बड़ा मुफीद है कि वित्त मंत्रालय के अधिकारी कह रहे हैं कि नोटबंदी की प्रक्रिया पर जनवरी 2016 में काम शुरू हो चुका था जबकि नए गवर्नर की नियुक्ति सितम्बर 2016 में हुई थी इसके बावजूद नोटबंदी के तुरंत बाद बाजार में आई 2000 और 500 की नई करेंसी पर उर्जित पटेल के हस्ताक्षर हैं। इसी आधार पर कांग्रेस आरोप लगा रही है कि मोदी सरकार ने रिजर्व बैंक को कठपुतली बना कर देश में आर्थिक अराजकता ला दी।

  कांग्रेस के आरोपों में इतनी तो सच्चाई है कि देश में आर्थिक अव्यवस्था फैल गई है लेकिन यह दावे से नहीं कहा जा सकता है कि रिजर्व बैंक और उसके गवर्नर सरकार की कठपुतली बन गए हैं, बावजूद यह साफ दिखाई पड़ रहा है कि रिजर्व बैंक जैसा देश का प्रतिष्ठित और स्वायत्त संस्थान राजनीति का मोहरा बन गया है। यह सब केंद्र सरकार के जल्दबाजी के फैसले के चलते ही हुआ है।