बंगाल में बीजेपी को रोकने की सियासी कवायद तेज
खरी खरी संवाददाता
कोलकाता। कभी वामपंथ का गढ़ रहे पश्चिम बंगाल में एक दशक से ममता का राज है। इसके बावजूद यहां धुर हिंदुत्व वाली भाजपा को रोकने के लिए सियासी बिसात बिछाई जा रही है। एक दूसरे के खिलाफ खड़े दल भाजपा को रोकने के लिए आपस में हाथ मिलाने की तैयारी कर रहे हैं। कौन किससे हाथ मिलाए बस इतनी सी असहजता है। वहीं भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और प्रभारी महासचिव कैलाश विजयवर्गीय आपस में हाथ मिलाने को तैयार दलों में सेंध लगाकर सियासी बिसात पर नई चाल भी चल सकते हैं।
पश्चिम बंगाल में पिछले विधानसभा चुनाव में सारी ताकत लगाने के बाद भी भाजपा सत्तारूढ़ होने से बहुत पीछे रही। सत्ता में वापसी से खुश तृणमूल कांग्रेस ने इस बात से भी राहत की सांस ली कि इस सियासी जंग में उनकी मुख्य प्रतिद्वंदी सीपीएम बहुत पीछे तरह गई। क्योंकि ममता को लग रहा था कि भाजपा पश्चिम बंगाल में पैर नहीं जमा पाएगी और उसकी सक्रियता से सीपीएम और कांग्रेस को नुकसान होगा तथा उनकी टीएमसी पावरफुल बनी रहेगी। लेकिन भाजपा ने धीरे धीरे पश्चिम बंगाल में इतने पैर तो जमा लिए हैं कि अब वह यहां से हिल नहीं सकती है। इसीलिए अब ममता और अन्य दल भाजपा को रोकने की कवायद में जुट गए हैं।
तृणमूल कांग्रेस ने इसके लिए संगठन और मंत्रिमंडल में फेरबदल किया है। वहीं कांग्रेस में चुनावी तालमेल के सवाल पर दो गुट आमने-सामने हैं। इनमें से एक गुट सीपीएम की अगुवाई वाले वाममोर्चा के साथ तालमेल जारी रखने की वकालत कर रहा है तो दूसरा गुट तृणमूल कांग्रेस के साथ एक बार फिर हाथ मिलाने के पक्ष में है। सीपीएम का प्रदेश नेतृत्व फ़िलहाल इस मुद्दे पर चुप्पी साधे बैठा है। पार्टी की केंद्रीय समिति भाजपा से मुकाबले के लिए कांग्रेस का हाथ थामने के प्रस्ताव को पहले ही लाल झंडी दिखा चुकी है। बावजूद इसके स्थानीय स्तर पर दोनों दलों के बीच तालमेल होता रहा है।
दूसरी ओर, भाजपा अपने पैरों तले की ज़मीन मज़बूत करने और जवाबी रणनीति बनाने में जुटी है। बीते महीने के आखिर में राज्य के दो-दिवसीय दौरे पर आए पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने प्रदेश नेताओं को लोकसभा की 42 में से कम से कम 22 सीटें जीतने का लक्ष्य दिया है। वैसे प्रदेश भाजपा ने जो चुनावी ब्लूप्रिंट तैयार किया है उसमें कहा गया है कि पार्टी राज्य में कम से कम 26 सीटें जीत सकती है। हाल के पंचायत चुनावों में, ख़ासकर आदिवासी इलाकों में, पार्टी का प्रदर्शन काफ़ी बेहतर रहा है, इससे उसके हौसले बुलंद हैं। वैसे भी बीते दो-तीन वर्षों के दौरान होने वाले तमाम उपचुनावों और शहरी निकायों के लिए हुए चुनावों में कांग्रेस और सीपीएम को पीछे धकेलते हुए भाजपा दूसरे स्थान पर रही है।
कांग्रेस ने वर्ष 2016 के विधानसभा चुनावों में वाममोर्चा के साथ हाथ मिलाया था। तब पार्टी को 44 सीटें मिली थीं, लेकिन बीते दो वर्षों के दौरान उसके एक दर्जन विधायक तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए हैं। पलायन का यह सिलसिला अब भी जारी है। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में तृणमूल कांग्रेस को 34 सीटें मिली थीं। कांग्रेस ने चार सीटों पर जीत हासिल की थी जबकि सीपीएम और भाजपा को दो-दो सीटें मिली थीं हाल के पंचायत चुनावों में ख़ासकर राज्य के आदिवासी इलाकों में भाजपा के बेहतर प्रदर्शन के बाद सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस ने आदिवासी नेताओं के साथ संबंधों को मज़बूत करने की कवायद शुरू की है।
भाजपा ने वर्ग विशेष में पैठ बनाने की कवायद शुरू की और उसे इसका लाभ मिला। सत्तारूढ़ टीएमसी और कांग्रेस तथा वामपंथी दल भाजपा की इस चाल को ठीक से समझने में नाकाम रहे। इसलिए अब सब मिलकर भाजपा को रोकने की कवायद में जुट गए हैं। लोकसभा के 2019 के चुनाव में अगर भाजपा अपने लक्ष्य के अनुसार सीटें जीतने में सफल रहती है तो अगले विधानसभा चुनाव में वहां तृणमूल सहित अन्य सभी दलों के लिए बड़ी मुश्किल हो जाएगी।