नाटक वृत्ति नाशक: शिकारी खुद हो जाता है वक्त के हाथों शिकार
खरी खरी संवाददाता
भोपाल। मनुष्य जीवन की सफलता, निष्फलता के पीछे कितने कारण, कैसी स्थितियां, कैसा स्वभाव उत्तरदायी है, इसका नैतिक बोध मनुष्य को कभी नहीं होता। यदि होता तो अपना जीवन संवारने के लिए महापुरुषों का जीवन, उनकी वाणी, उनके आचरण को नजर-अंदाज न किया जाता। तथागत बुद्ध ने सृष्टि में विचरण करने वाले अनेक हिंसक जीवों की योनि में जन्म लेकर भी अपनी वृत्ति-प्रवृत्ति के विपरीत संत और ऋषि मुनियों सा आचरण प्रस्तुत किया जो आज भी प्रेरणीय है। तथागत बुद्ध के अनन्य जन्मों के साथ जुड़ी जातक कथाओं का संसार विहंगम है। वे इनके माध्यम से आदिकाल से मनुष्य के लिए कोई न कोई सीख, कोई न कोई प्रेरणा देते रहे हैं। अर्ध्य कला समिति द्वारा बैले नृत्य के माध्यम से नाटक वृत्ति-नाशक’ का मंचन शहीद भवन के सभागार में वैशाली गुप्ता के निर्देशन में किया गया।
नाटक की कहानी
चुलनन्दनीय जातक पर आधारित इस नाटक की कहानी पांच हजार वानरों के शासक नन्दीय और चुलनन्दीय बंधुओं के आस-पास बुनी गई। यह दोनों ही भाई अपनी प्रजा का ख्याल रखने के साथ ही अपनी वृद्ध मां की बड़ी सेवा करते हैं जिन्हें दिखाई भी नहीं देता। दोनों भाई आपात स्थिति आ जाने पर भरण-पोषण और भोजन की कठिनाइयों के कारण दूसरे स्थान पर जाकर खाने-पीने का संकट हल करने निकल जाते हैं साथ में उनके अन्य विश्वासपात्र बन्दर भी होते हैं। नन्दीय व चुलनन्दनीय अपनी मां को कुछ संख्या में छोड़ी गई प्रजा के विश्वास पर यहीं छोड़ देते हैं। नए स्थान से वे खाद्य सामग्री अर्जित कर अपने साथियों के हाथ अपनी मां व प्रजा के पास पहंचाते हैं। मगर वह साथी वानर वृत्ति छल और धोखे से भेजी गई खाद्य सामग्री शेष प्रजा और उनकी मां को न देकर खुद भक्षण करके अपने राजाओं से झूठ बोल देते हैं। झूठ का पता चलने से व्यथित हो वापस आ अपनी मां की सेवा में लग जाते हैं। यहां पर एक निर्मम, लालची व्याघ्र (शिकारी) उन दोनों भाईयों को मार कर साथ ले जाने लगता है, तभी रास्ते में शिकारी के दो बच्चे रोते हुए मिलते हैं और कहते हैं कि मां घर के साथ जल रही है। व्याघ्र बचाने दौड़ता है और स्वयं भी जल जाता है, दोनों बच्चों रोने लगते हैं और कहते हैं कि अब हमारा कोई नहीं रहा... तभी बुद्ध प्रकट हो कहते हैं कि नहीं मैं हूं तुम सबका और इस तरह इस बैले नृत्य के माध्यम से मंचित नाटक समाप्त होता है। लगभग 25 युवाओं द्वारा मंचित यह बैले नृत्य के माध्यम से नाटक ने श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। मंच सज्जा वनों पर आधारित बेहद खूबसूरत जान पड़ी वहीं धीमी रोशनी का अपना ही अलग रंग था।
मंच पर
इस बैले नृत्य नाटक में अभिनय करने वालों में तथागत बने ब्रजेश कुशवाह, कपि मां- सुभद्रा बिंधानी, महानन्दीय - अंकेश शर्मा, चुलनन्दीय- प्रथम भार्गव, घोटक- ओमसिंह जादौन, व्याघ्र (शिकारी)- हर्ष राव, शिकारी की पत्नी- निधि भट्ट, लाडू- पीयूष सेदांणे मुख्य एवं दर्शकों को बांधे रखने में सफल रहे। इनके अलावा चक्कू बंदर बने राजवीर सिंह, छोटे हिरण के रूप में भावेश डेकाटे, अनंतिका मिश्रा, चिड़ियों के गेटअप में इशिका गौड़, आनन्दी मिश्रा, अक्षत पुरी, हितेशी डेकाटे व बंदर समूह में निहारिका श्रीवास्तव, अमृत कौर, हनी भार्गव, निमित गोयल, तेजवंत सिंह, इशिका गौड़ ने भी अपने अभिनय से दर्शकों में अलग छाप छोड़ी।