नवाब के बजाय शतरंज के लिए जान दे देते हैं जागीरदार

Aug 01, 2019

खरी खरी संवाददाता

भोपाल। बहुकला केंद्र भारत भवन में बुधवार को बहुचर्चित नाटक शतरंज के खिलाड़ी का मंचन किया गया। मुंशी प्रेमचंद की कहानी पर आधारित इस नाटक का निर्देशन दिनेश नायर ने किया है। करीब एक घंटे के नाटक में नवाबी काल की वास्तविकता को दिखाया गया है।  कहानी में नवाबी काल में लखनऊ के सामंतवाद का जीवंत चित्रण किया गया है। किस तरह नवाब के जागीरदार नवाब के बजाय शतरंज के लिए अपनी जान दे देते हैं। अवध के नवाब वाजिद अली शाह के दो जागीरदार मिर्जा सज्जाद अली और मीर रोशन अली लखनऊ में ही रहते हैं। दोनों को किसी बात से कोई मतलब नहीं है। सारा दिन सिर्फ शतरंज खेलते रहते हैं। जागीरदार होने के कारण नौकरों चाकरों का हुजूम है जो उनकी सेवा में लगा रहता है। एक दिन मिर्जा की बेगम की तबियत खराब हो जाती है। वे मिर्जा तक संदेश पहुंचाती हैं कि वे हकीम के यहां जाकर दवा ले आएं। मिर्जा हर बाजी को बस अब खेल खत्म वाले अंदाज में खेलते रहते हैं। बीबी की बीमारी की चिंता तक उन्हें नहीं होती है। इससे नाराज बीबी शतरंज के खेल का सारा सामान उठाकर ड्योढ़ी के बाहर फेंक देती हैं। इससे शतरंज के इन दीवानों पर कोई असर नहीं पड़ता है। अगले दिन से खेल की बैठक मिर्जा के बजाय मीर के घर पर शुरू हो जाती है। मीर की बेगम कुछ दिन तो कुछ नहीं बोलतीं लेकिन दिन भर सिर्फ शतरंज और हुक्का चिलम से वे भी उकता जाती हैं। सीधे कुछ कहने की बजाए वे एक चाल चलती हैं। इसके चलते एक दिन बादाशाही फौज का एक अफसर मीर के घर दबिश दे देता है। शतरंज में मस्त मीर के नौकर उनके घर पर नहीं होने की इत्तला दे देते हैं। मीर के नहीं मिलने से अफसर नाराज होकर नौकरों पर रौब झाड़कर चला जाता है। इससे मीर दहशत में तो आता है, लेकिन शतरंज का नशा नहीं छूटता। दोनों दोस्त इसका तोड़ निकालते हैं और खेल का सारा सामान हुक्का, चिलम, चटाई लेकर गोमती नदी के किनारे एक सूनसान मस्जिद में चले जाते हैं। बेगमों की किचकिच से दूरे सन्नाटे में शतरंज की बाजियां शुरू हो जाती हैं। एक दिन मीर को नदी किनारे अंग्रेजी फौज आती दिखाई देती है। वे यह सूचना मिर्जा को देते हैं लेकिन उन पर शतरंज का नशा चढ़ा रहता है और वह मीर से फालतू बातें करने के बजाय चाल चलने के लिए कहता है। कुछ समय बाद देखते हैं कि अंग्रेजी फौज अवध के नवाब वाजिद अली शाह को कैद करके ले जा रही है। कैदी नवाब सिर झुकाए चले जा रहे हैं और सारा लखनऊ तमाशा देख रहा है। दोनों जागीरदार नवाब के लिए जान देना तो दूर उनकी चिंता तक नहीं करते हैं। कुछ समय बाद एक चाल को लेकर उनके बीच विवाद हो जाता है। विवाद बढ़ जाता है और खानदान तथा रईसी तक पहुंच जाता है। गुस्से में दोनों अपनी कटार निकालते हैं और एक दूसरे को मार देते हैं। इस तरह नवाब के जागीरदार नवाब के बजाय शतरंज के लिए अपनी जान दे देते हैं। इसी के साथ नाटक खत्म हो जाता है।