इस बार रोचक होगी एनडीए बनाम इंडिया की जंग
खरी खरी डेस्क
नई दिल्ली, 21 अगस्त। देश में लोकसभा चुनाव अभी दूर हैं लेकिन इन चुनावों की सियासी आहट ने सबको अलर्ट कर दिया है। विपक्ष की भूमिका निभा रहे यूपीए ने अपना चेहरा बदलकर इंडिया नाम रख लिया है। वहीं सत्तारूढ़ एनडीए ने नाम तो नहीं बदला लेकिन कुनबे में कई नए साथी आ गए। ऐसे में एनडीए बनाम इंडिया की जंग इस चुनाव में रोचक है। इसलिए यह समझना पडेगा कि कौन कितना भारी है।
संख्या की दृष्टि से ‘एनडीए’ अभी भी ‘इंडिया’ पर भारी है। इंडिया में 26 तो एनडीए में 38 दल हैं। लेकिन महत्व केवल संख्या का नहीं, राजनीतिक दलों के जनाधार और वैचारिक धरातल का है। कांग्रेस और कम्युनिस्टों के अलावा कई क्षेत्रीय दल हैं, जिनकी अपनी मजबूत जमीनी पकड़ राज्यों में है। इसलिए संख्या में भले कम हों, लेकिन तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस, जनता दल यू, राजद, झामुमो, नेशनल कांफ्रेंस आदि ऐसी पार्टियां हैं, जिनका अपना मजबूत और परखा हुआ वोट बैंक है। इसके विपरीत एनडीए में शामिल दलों में भाजपा को छोड़ दिया जाए तो बाकी दलो और नेताओं के जनाधार और प्रभाव की स्थिति शेरनी के पीछे चलने वाले शावकों जैसी है। बेंगलुरू की विपक्षी महाजुटान को यकीन है कि वर्तमान हालात में ‘इंडिया’ नाम आम मतदाता में नई फुरफुरी और चेतना पैदा करेगा, जो चुनावी जीत का समीकरण बदल सकता है। लेकिन यह लक्ष्य कठिन इसलिए है क्योंकि भाजपानीत ‘एनडीए’ और ‘इंडिया’ के बीच वोट बैंक की बड़ी खाई है। आंकड़ों को देखें तो 2004 के बाद से ‘एनडीए’ का वोट बैंक लगातार बढ़ रहा है। यह 2004 में 22.18 प्रतिशत था, जो 2019 में बढ़कर 37.36 प्रतिशत हो गया। जबकि यूपीए का वोट प्रतिशत 2004 व 2009 में तो बढ़ा, लेकिन 2014 व 2019 के चुनाव में 19 फीसदी के आसपास स्थिर है।इसका सीधा अर्थ यह है कि जब तक ‘इंडिया’ अपना वोट बैंक 37 फीसदी के पार नहीं ले जाता, लाल किले पर उसका कब्जा सपना ही होगा। वोट बैंक दोगुना करना आसान काम नहीं है। यह तभी संभव है, जब विपक्ष के पास दमदार चेहरा, ठोस कार्यक्रम और देश को आगे ले जाने का स्पष्ट रोड मैप हो। संविधान और लोकतंत्र को बचाने जैसे जुमले सैद्धांतिक ज्यादा हैं। अलबत्ता 2024 के चुनाव में ‘इंडिया’ का वोट दो-चार प्रतिशत बढ़ सकता है, क्योंकि कुछ राज्यों में मजबूत जनाधार वाले दल उसमें शामिल हो गए हैं। लेकिन यहां भी पेंच यह है कि जनाधार वाले शिवसेना, राकांपा व अकाली दल में फूट पड़ने से उनका खुद को वोट बैंक दरक रहा है। ऐसे में ‘इंडिया’ को उसका सीमित लाभ ही मिल सकेगा। दूसरी तरफ एनडीए वोट बैंक की इस कमी को उन छोटे दलों को अपने खेमे में लाकर पूरी कर सकता है, जिनका वोट दो चार प्रतिशत है और जो ज्यादा आंख दिखाने की स्थिति में नहीं हैं। यानी दिल्ली की सत्ता में बदलाव तभी संभव है, जब जनता मोदी और भाजपा को हर कीमत पर हराने पर उतारू हो, जिसकी कोई संभावना नजर नहीं आती।
तो क्या ‘इंडिया’ का जुमला ‘भारत’ पर भारी पड़ेगा या नहीं? अभी संभावनाएं धुंधली ही हैं? इसका सबसे बड़ा कारण इस मोर्चे का नेतृत्व करने वाली कांग्रेस का पसोपेश में होना भी है। खुद राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनने के अनिच्छुक बताए जाते हैं। ऐसे में सवाल नेतृत्व पर अटकेगा। 26 दलों के बीच सम्बन्धित राज्यों में लोकसभा सीटों का बंटवारा भी टेढ़ी खीर है, जिसमें अभी कई पेंच आने हैं। लोकसभा चुनाव को 'वन टू वन' मुकाबले में तब्दील करने के लिए सभी दलों को पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर राजनीतिक त्याग करना होगा। जो व्यवहार में कैसा होगा, यह देखने की बात है।
यहां दो तर्क 1977 और 2004 के लोकसभा चुनाव के दिए जाते हैं। पहले मामले में जनता पार्टी द्वारा श्रीमती इंदिरा गांधी नीत कांग्रेस को पराजित करना और दूसरे मामले में अटल बिहारी वाजपेयी जैसे दिग्गज नेता के बावजूद एनडीए का नवोदित यूपीए के हाथों पराजित होने का है। जनता पार्टी का प्रयोग तत्कालीन भारतीय जनसंघ सहित 6 पार्टियों के एक पार्टी में विलीनीकरण के तौर पर हुआ था। लेकिन उस वक्त भी गैर कांग्रेसी 32 पार्टियां उसमें शामिल नहीं थी। जनता पार्टी को उस चुनाव में 41.32 फीसदी वोट मिले थे, जो अब किसी भी विपक्षी पार्टी को मिले सर्वाधिक वोट हैं। लेकिन जनता पार्टी भी मुख्य रूप से उत्तर पश्चिम भारत में ही जीती थी और दक्षिण में कांग्रेस ने अपना किला बचाया था।
जनता पार्टी के पास तब जयप्रकाश नारायण और कुछ पुराने कांग्रेस नेताओं का नेतृत्व था। लेकिन जपा की जीत का असली कारण श्रीमती गांधी द्वारा देश में लागू आपातकाल को लेकर जनता में फैला रोष था। चूंकि यह जपा भी दलो का बेमेल वैचारिक गठजोड़ थी, इसलिए यह प्रयोग ढाई साल बाद ही असफल हो गया। 2004 में भाजपानीत एनडीए अटलजी जैसा दमदार चेहरा होने के बाद भी इसलिए हारा, क्योंकि तब उन्होंने उदारवादी राजनीति की दरी तले हिंदुत्ववादी विचार को दबा दिया था।
भाजपा और एनडीए के बढ़ते जनाधार के पीछे असली वजह राम मंदिर को लेकर बहुसंख्यक हिंदू वोटरों की विस्तारित होती गोलबंदी रही है, लेकिन अटल सरकार ने राम मंदिर जैसे कोर इश्यु को भी ठंडे बस्ते में डाला हुआ था। साथ ही ‘फील गुड’ फैक्टर भी एनडीए को ले डूबा। जनता में संदेश गया कि सरकार को गरीबों की खास चिंता नहीं है। इसी को मुद्दा बनाकर 2004 में यूपीए बिना किसी चेहरे के सत्ता में आ गया। लेकिन यूपीए 2 कार्यकाल घपले, घोटालों और प्रबल राजनीतिक नेतृत्व के अभाव से जूझता रहा। दूसरी तरफ भाजपा ने राम मंदिर मुद्दे को और पकाया और कट्टर हिंदुत्ववादी नेता के रूप में नरेन्द्र मोदी को अपना चेहरा बनाया। यह प्रयोग सफल रहा, जिसका भरपूर लाभांश भाजपा और एनडीए को 2019 में भी मिला। बारीकी से देखें तो 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदीजी के खाते में नोटबंदी जैसे नकारात्मक मुद्दे ज्यादा थे। लेकिन एयर स्ट्राइक जैसे कदमों ने उनकी निर्णायक छवि को चमकाया। आज मोदी पर सर्वसत्तावाद, तानाशाही रवैये और लोकतांत्रिक संस्थाओं को खत्म करने जैसे विपक्षी आरोपों के बाद भी उनके खाते में राम मंदिर, कश्मीर से धारा 370 हटाने, एनसीए लागू करने और जल्द ही यूसीसी लाने जैसे काम होंगे। नरेन्द्र मोदी की सबसे बड़ी सफलता यह है कि उन्होंने भाजपा से हटकर अपना एक प्रतिबद्ध वोट बैंक भी खड़ा कर लिया है, अगर हम इसे ‘भारत’ मानें तो उससे पार पाना ‘इंडिया’ के लिए बेहद कठिन है।