सपा की 'सायकिल' कांग्रेस के 'हाथ'

Jan 18, 2017

                                                                                             सुमन ‘रमन’

उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अपने पिता से सियासत का कूटनीतिक युद्ध जीतने के बाद नए राजनीतिज्ञ अंदाज में आ गए हैं। यूपी में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के अब आधिकारिक अध्यक्ष अखिलेश सपा की “सायकिल’’ अब उस कांग्रेस के “हाथ” में थमाने जा रहे हैं जो ‘’27 साल-यूपी बेहाल’’ के नारे के साथ इस बार चुनाव मैदान में हैं। अखिलेश को उम्मीद है कि सपा और कांग्रेस का वोट बैंक मिलकर एक बार फिर उन्हें उत्तर प्रदेश के सत्ता सिंहासन पर पहुंचा देगा। अखिलेश यादव समाजवादी दलों के महागठबंधन को तभी नकार चुके थे जब पिता-पुत्र में ठनी भी नहीं थी। इससे साफ है कि अखिलेश ने दूर की रणनीति पहले ही तय कर ली थी। कांग्रेस और सपा की ताजा दोस्ती में सरकार बनाने के सारे समीकरण फिट बैठ रहे हैं। थोड़े बहुत वोट बैंक का अंतर न पड़ जाए इसलिए सेफ साइड गेम खेलते हुए राष्ट्रीय लोकदल को भी इस दोस्ती में शामिल कर लिया गया है, ताकि उसके वोट बैंक का फायदा भी इस गठबंधन को मिल सके।

   समाजवादी पार्टी ने पहले ही ठान लिया था कि उत्तर प्रदेश में भाजपा को रोकने के लिए वह हर संभव रणनीति अपनाई जाएगी जैसी बिहार में नीतिश और लालू ने अपनाई थी। इसी के चलते मुलायम सिंह यूपी में भी बिहार जैसा गठबंधन बनाना चाहते थे। अखिलेश यादव शुरु से ही इस तरह के महा गठबंधन के खिलाफ थे। अखिलेश को लगता है कि समाजवादी दलों का वोट बैंक लगभग एक जैसा है इसलिए इनका महागठबंधन बनने पर उत्तर प्रदेश में बिहार जैसा फायदा नहीं होगा। इसलिए वह हाशिये पर पड़ी कांग्रेस जैसी पार्टियों के साथ गठबंधन करना चाहते थे, ताकि अपनी शर्तों पर सीटों का बंटवारा कर सकें। पिता मुलायम सिंह यादव और चाचा शिवपाल के तमाम दबाव के बावजूद अखिलेश कम वोट बैंक वाली पार्टियों से ही गठबंधन चाहते थे। सपा के अन्दरूनी महासंग्राम में विजय के बाद अखिलेश ने वही किया जो वह चाहते थे। तस्वीर एकदम साफ है कि अखिलेश प्रदेश में अपनी छवि के साथ सपा और कांग्रेस के वोट बैंक की दम पर सत्ता में वापस आना चाहते हैं।

   उत्तर प्रदेश का सियासी गणित और वोट बैंक का समीकरण बताता है कि उत्तर प्रदेश में सभी दलों का अपना वोट बैंक है। लगभग सत्ताइस साल से प्रदेश की सत्ता से बाहर होने तथा दलित और मुस्लिम जैसे परंपरागत वोट बैंक के दरक जाने के बावजूद कांग्रेस औसतन नौ से दस प्रतिशत वोट बैंक पर कब्जा जमाए है। समाजवादी पार्टी का औसतन वोट बैंक लगभग पच्चीस फीसदी है। अगर सपा का वोट बैंक कम होता है तथा तमाम कोशिशों के बावजूद कांग्रेस का वोट बैंक नहीं बढ़ता। तब भी दोनों का गठबंधन अट्ठाइस से तीस फीसदी वोट पाने में सफल हो जाएगा। उत्तरप्रदेश में लगभग तीस फीसदी वोट पानी वाली पार्टी सरकार बनाने में सफल हो जाती है। अगर कांग्रेस और सपा का गठबंधन इस जादुई आंकड़े तक पहुंचने में थोड़ा पीछे रह जाता है, तब राष्ट्रीय लोकदल जैसे छोटे दोस्त काम आ जाएंगे। अखिलेश और राहुल गांधी दोनों ही जानते हैं कि पश्चिमी उत्तरप्रदेश में राष्ट्रीय लोकदल का वर्चस्व है। इस इलाके में विधानसभा की 77 सीटें हैं। यहां करीब 26 फीसदी मुस्लिम तथा लगभग 17 प्रतिशत जाट मतदाता हैं। भाजपा को हराने के लिए मुस्लिम वोटर भी जाट प्रत्याशी के साथ जा सकते हैं। रालोद का अपना वोट बैंक इस इलाके में बना हुआ है। चौधरी चरण सिंह के जमाने से चला आ रहा चौधरी परिवार का सम्मान आज भी पूरे क्षेत्र में कायम है। इसके चलते रालोद विधानसभा चुनाव में इतनी सीटें निकाल लेता है कि किसी भी तरह के गठबंधन की सरकार बनने पर बड़ी पार्टियों को रालोद के सामने हाथ फैलाना ही पड़ जाए। अखिलेश इस गणित को पहले ही समझ चुके हैं इसलिए वह रालोद से पहले ही समझौता कर रहे हैं।

उत्तर प्रदेश का यह नया सियासी समीकरण राजनीतिक विश्लेषकों को भी चौंकाने वाला होगा। इसमें एक चौंकाने वाली बात यह भी होगी कि राजनीतिक दल मौका पड़ने पर किस तरह अपने दावों और नारों को बदल देते हैं। स्पष्ट है कि सपा और कांग्रेस का गठबंधन बनने पर मुख्यमंत्री पद के मजबूत दावेदार अखिलेश यादव ही होंगे। ऐसे में कांग्रेस अपनी बुजुर्ग ब्राम्हण नेता और सीएम पद की दावेदार शीला दीक्षित को लेकर बैक फुट पर हो जाएगी। वहीं सपा “सत्ताइस साल यूपी बेहाल” के कांग्रेस के नारे को भूल जाएगी, क्योंकि सत्ताइस में से ग्यारह साल तक उत्तर प्रदेश में सपा ने ही शासन किया है। यह माना जा रहा है कि इस नए गठबंधन गणित के चलते युवा पीढ़ी को फ्रंट फुट पर लाया जाएगा। इसलिए उत्तर प्रदेश में प्रचार की कमान शीला दीक्षित, सोनिया गांधी, बेनी प्रसाद वर्मा सहित अन्य बुजुर्ग नेताओं की बजाय प्रियंका बढेरा और डिंपल यादव तथा राहुल गांधी और अखिलेश यादव जैसे युवा और ग्लैमरस चेहरों के हाथ में होगी। गठबंधन के सामने चुनौतियां भी बड़ी होंगी, विशेषकर टिकट के बंटवारे को लेकर घमासान मच सकता है। इसलिए अखिलेश और राहुल दोनों ही समझदारी से फैसले लेने की कोशिश में अभी से जुट गए हैं। कांग्रेस की कोशिश है कि उसे बंटवारे में उन दस सीटों पर भी चुनाव लड़ने का मौका मिले जिन पर फिलहाल समाजवादी पार्टी का कब्जा है। अखिलेश यादव कांग्रेस की यह बात मानने को तैयार दिखाई पड़ते हैं। ऐसे में सपा में बवाल मचने की स्थिति में अखिलेश अपने लोगों को कांग्रेस के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़वा सकते हैं। अगर अखिलेश और राहुल में यह समझौता हो जाता है तब हिन्दुस्तान में सियासी समीकरण की नई तस्वीर दिखाई पड़ेगी। सीट कांग्रेस की होगी और उम्मीदवार सपा का होगा। कुछ सीटों पर यह भी हो सकता है कि सीट सपा की हो और उम्मीदवार कांग्रेस का हो।

     सपा, कांग्रेस और रालोद के महागठबंधन की आधिकारिक घोषणा होने के बाद सारे तथ्य सामने आएंगे, लेकिन यह बात तय है कि अखिलेश यादव ने पिता से छीनी गई “साइकिल” को कांग्रेस के “हाथ” को पकड़ने का मौका देकर सियासत के नए इतिहास की शुरुआत की है। कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी जिस तरह अखिलेश का साथ दे रहे हैं इससे साफ लग रहा है कि वह राजनिति के इस खेल में थोड़ा और मैच्योर हो गए हैं। अगर शीला दीक्षित को बैक फुट पर कर के और एक दूसरे के चुनाव चिन्ह पर अपने प्रत्याशी उतार कर जीत हासिल होती है तो राहुल सत्ताइस साल से सत्ता से बाहर कांग्रेस को सत्ता के गलियारे तक पहुंचाने में सफल हो जाएंगे। सियासत का यह खेल फिलहाल भले समझ में नहीं आ रहा हो लेकिन गठबंधन सत्तारूढ़ होता है तो राजनितिज्ञ पंडित भी इनकी जयजयकार करने से नहीं चूकेंगे।