मोदी के मगहर पहुंचने के गहरे सियासी मायने
खरी खरी डेस्क
लखनऊ। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी कबीर की समाधि पर माथा टेकने के लिए उनके निर्वाण स्थल मगहर पहुंच गए। इसे एक सामान्य घटना नहीं माना जा सकता है। जिस मगहर में बीते दो साल से कबीर उत्सव नहीं हो रहा था, वहां उत्सव होना तथा पीएम और सीएम का उसमें शामिल होना बड़ा सियासी दांव माना जा रहा है।
मगहर स्थित कबीर की समाधि पर हर साल साल 12 जनवरी से 18 जनवरी तक मगहर महोत्सव आयोजित किया जाता है। आयोजन एक समिति करती है और राज्य का पर्यटन मंत्रालय इसमें विशेष सहयोग करता है। पिछले दो साल से इसका आयोजन बंद है। कबीर की समाधि स्थल के पास एक दुकानदार बताते हैं कि 2017 में तो चुनाव के चलते ये आयोजन नहीं हो पाया, लेकिन इस साल तो ऐसी कोई मजबूरी नहीं थी। इतना बड़ा गोरखपुर महोत्सव मनाया गया, लेकिन कबीर को छोड़ दिया गया। अब क्यों इतना बड़ा कार्यक्रम हो रहा है कि प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और तमाम नेता यहां आ रहे हैं? इस सवाल का जवाब वो सज्जन सिर्फ़ अपनी मुस्कान से देते हैं। कबीर के अनुयायियों का सामाजिक दायरा, उनकी पहुंच और उनके प्रभाव को देखते हुए ये समझना मुश्किल नहीं लगता कि लोकसभा चुनाव से ऐन पहले कबीर के प्रति अचानक उमड़े प्रेम के पीछे कारण क्या है। समाधि स्थल पर देवरिया से आए 60 वर्षीय राम सुमेर बेहद तल्ख़ लहज़े में कहते हैं कि छह महीने पहले सोलहवीं सदी के महान संत कबीरदास की समाधि स्थल पर कई साल से हो रहे मगहर महोत्सव को पैसे की वजह से रद्द कर दिया गया और अब करोड़ों रुपये ख़र्च करके इतना बड़ा आयोजन हो रहा है तो आपको क्या लगता है, ये कबीर के प्रति प्रेम है, आस्था है या श्रद्धा है? कुछ नहीं.... ये सिर्फ़ वोट की राजनीति है।
राम सुमेर के तेवर देखकर कुछ तो उनके समर्थन में बोलने लगे और कुछ मंद-मंद मुस्करा भी रहे थे, लेकिन राम सुमेर जो बात कह रहे थे उसमें तथ्यात्मक सच्चाई तो थी ही और अनुमान वाली बात का उन्होंने सीधे तौर पर जवाब ही नहीं दिया। उनका दावा है कि वो हर साल मगहर महोत्सव में आते हैं और वैसे भी साल में तीन-चार बार यहां आते रहते हैं।
वरिष्ठ पत्रकार शरद प्रधान बताते हैं कि देखिए, नरेंद्र मोदी एक छोटी-सी जगह पर इतने बड़े कार्यक्रम में शामिल हो रहे हैं तो इसके पीछे फ़ायदे की राजनीति तो है ही, देश भर में फैले कबीरपंथियों को इस जगह से बेहतर संदेश और कहां से दिया जा सकता था। दूसरे कबीर पंथी ज़्यादातर पिछड़े और दलित समुदायों से आते हैं तो ज़ाहिर है, इन्हें साधने की यह एक ज़ोरदार कोशिश हो सकती है। पिछले चुनावों में भी मोदी-अमित शाह की जोड़ी ऐसा कर चुकी है और फ़ायदा भी ले चुकी है।
उत्तर प्रदेश के अलावा देश के तमाम राज्यों में कबीर पंथी फैले हुए हैं। कई जगहों पर इनकी अलग-अलग गद्दियां हैं और कुछेक भिन्नताओं के बावजूद कबीर के प्राकट्य स्थल काशी और निर्वाण स्थल मगहर में सबकी अगाध श्रद्धा है। जहां तक कबीर पंथियों की संख्या का सवाल है तो ये करोड़ों में बताई जाती है।मगहर स्थित कबीर मठ के मुख्य महंत विचार दास कहते हैं कि "कबीर साहेब की वाणी की अलग-अलग व्याख्या के चलते कबीरपंथी तमाम वर्गों यानी गद्दियों में भले ही बंटे हों, लेकिन मगहर सबकी आस्था का प्रमुख केंद्र है। हिन्दु, मुसलमान, सिख समेत तमाम जातियों और संप्रदायों के लोग यहां आते हैं। कबीरपंथ के अनुयायियों की बात करें तो देश भर में इनकी संख्या कम से कम चार करोड़ है। पूर्वांचल के दस ज़िलों की 13 सीटों पर इस पंथ को मानने वाले लोगों का ख़ासा प्रभाव है। जानकारों के मुताबिक दलितों-पिछड़ों को ही एक छत के नीचे लाकर बीजेपी ने 13 में से 12 सीटें जीत ली थीं। लेकिन अब जिस तरह से महागठबंधन की चर्चा हो रही है, उससे बीजेपी को भी ये डर लगने लगा है कि कहीं दलित-पिछड़ा गठजोड़ उसे नुक़सान न पहुंचा दे। इसलिए ऐसी हर कोशिश वो करना चाहती है जिससे कि वो इन्हें अपने पक्ष में बनाए रखे।
स्थित कबीर मठ के महंत विचार दास