ट्रिपल तलाक की कुप्रथा से मिली आजादी

Aug 23, 2017

खरी खरी संवाददाता

नई दिल्ली, 22 अगस्त। देश के सर्वोच्च न्यायालय ने एक सर्वोचित फैसला देकर देश की करोड़ों मुस्लिम महिलाओं को सदियों पुरानी दहशतभरी परपंरा से आजादी दिला दी है। सर्वोच्च न्यायालय ने तीन तलाक को असंवैधानिक करार देते हुए इसे त्वरित प्रभाव से खत्म करने का आदेश दिया है। इससे मुस्लिम समाज का पुरुष वर्ग और धर्म के झंडाबरदार भले ही नाराज हों लेकिन मुस्लिम महिलाएं बेहद खुश हुई हैं और उन्हें देश का समर्थन मिल रहा है।

मुस्लिम समाज की ट्रिपल तलाक की परंपरा को मुस्लिम महिलाओं की ओर से ही सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी। मामला एक बड़े तबके और समाज से जुड़ा था, शायद इसीलिए इसे सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय बेंच के सामने रखा गया। इस बेंच में पांच धर्मों हिंदू, मुस्लिम, सिख, इसाई और पारसी धर्म को मानने वाले जजों को रखा गया था। सिख धर्म को मानने वाले चीफ जस्टिस के एस खेहर इसी साल 27 अगस्त को रिटायर होने जा रहे हैं। इसलिए यह माना जा रहा था कि फैसला उनके रिटायर होने के पहले ही आ जाएगा। सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने वाली महिलाओं के अलावा पूरे देश की निगाहें इस पर लगी थीं। संभवतः इसी के चलते इस मामले पर अंतिम फैसला जस्टिस खेहर की सेवा निवृत्ति के पहले बेंच ने सुना दिया। बेंच के पांच सदस्यों में से सिर्फ एक ही जस्टिस खेहर के मत से सहमत थे। तीन अन्य सदस्यों के मत इनसे भिन्न थे, हालांकि सभी का उद्देश्य मुस्लिम महिलाओं को इस कुप्रथा से मुक्ति दिलाना था। चीफ़ जस्टिस जेएस खेहर और जस्टिस अब्दुल नज़ीर ने फैसला दिया कि सरकार 6 महीने के अंदर कानून बनाए और तब तक तीन तलाक पर रोक रहेगी। लेकिन जस्टिस कुरियन जोसेफ़, जस्टिस यूयू ललित और जस्टिस रोहिंग्टन एफ. नरीमन ने तीन तलाक़ को असंवैधानिक करार दिया। इस तरह तीन जजों का बहुमत होने के कारण अंतिम फैसला तीन तलाक को समाप्त करने वाला ही रहा। विधि विशेषज्ञों का मानना है कि फैसला तीन जजों के बहुमत से हुआ है इसलिए अब केंद्र को कानून बनाने की कोई जरूरत नहीं है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला ही कानून है। यदि यह फैसला बहुमत से नहीं होता तो कोर्ट के निर्देशानुसार केंद्र को 6 महीने के अंतर कानून बनाना पड़ता।

सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक को समानता के मौलिक अधिकारों के उल्लंघन वाला बताया और कहा कि यह गैर संवैधानिक है, इसलिए इस पर तुरंत प्रभाव से रोक लगाई जानी चाहिए। अदालत ने कई इस्लामिक देशों का हवाला देते हुए कहा कि जब उन देशों में इसे समाप्त किया जा सकता है तो भारत जैसा स्वतंत्र देश इससे मुक्ति क्यों नहीं पा सकता है।  

तीन तलाक़ मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का हनन है या नहीं, इस मसले पर कोर्ट ने मई में सुनवाई के बाद फ़ैसला सुरक्षित रख लिया था। शीर्ष अदालत ने इस मामले में 11 से 18 मई के बीच लगातार सुनवाई की थी। कोर्ट ने सुनवाई के दौरान कहा था कि कुछ संगठन तीन तलाक़ को वैध मानते हैं लेकिन शादी तोड़ने के लिए यह प्रक्रिया सही नहीं है। कोर्ट ने यह भी कहा था कि जो बात धर्म के मुताबिक़ भी सही नहीं है उसे वैध कैसे ठहराया जा सकता है?

तीन तलाक़ का ये मामला शायरा बानो की एक अर्जी के बाद सुर्खियों में आया।  शायरा ने अपनी अर्जी में तर्क दिया था कि तीन तलाक़ न इस्लाम का हिस्सा है और न ही आस्था का। उन्होंने मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के नियमों का भी हवाला दिया और कहा कि उसमें भी इसे गुनाह बताया गया है। सायरा बानो ने डिसलूशन ऑफ मुस्लिम मैरिजेज एक्ट को यह कहते हुए भी चुनौती दी कि यह क़ानून महिलाओं को दो शादियों से बचाने में नाकाम रहा है। उन्होंने मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत महिलाओं से होने वाले भेदभाव, जबरन तलाक़ और संविधान के ख़िलाफ जाकर पहली पत्नी के होते हुए दूसरी शादी करने के विरोध में सुप्रीम कोर्ट से अपील की थी।

एक महिला द्वारा शुरू की गई कानूनी लड़ाई ने देश की करोड़ों मुस्लिम महिलाओं को कुप्रथा से आजादी दिला दी। इसलिए फैसला आते ही देश भर में मुस्लिम महिलाओं ने अपनी खुशी का इजहार किया। उन्होंने आपस में मिठाइयां बांटी औऱ पुरातनपंथी परंपरा से आजादी का जश्न मनाया।