करुणानिधि सच में कलाईग्नर थे

Aug 09, 2018

 खरी खरी डेस्क

चेन्नई, 9 अगस्त। देश में द्रविड़ आंदोलन के प्रणेता और पांच ख्य तमिलनाडू के मुख्यमंत्री रहे एम. करुणानिधि चेन्नै के मरीना बीच पर अपने राजनैतिक गुरु सीएन अन्नादुरै की समाधि के बगल में चिर निद्रा में सो गए। उनकी अंत्येष्टि उनके सियासी गुरु की समाधि के पास की गई। यहीं पर अब उनकी समाधि बनाई जाएगी।

पूरे तमिलनाडू में प्यार से कलाईग्नर या कलाकार कहे जाने वाले करुणानिधि की अजीम शख्सियत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करने के लिए चेन्नै पहुंचे। संसद ने अपनी कार्यवाही रोककर उन्हें श्रद्धांजलि दी जबकि वे कभी संसद के किसी सदन के सदस्य नहीं रहे। तमिलनाडु को सामाजिक और आर्थिक रूप से तरक़्क़ीपसंद राज्य बनाने में उनका बड़ा योगदान रहा। पांच बार राज्य के मुख्यमंत्री रहने वाले करुणा निधि क़रीब 60 साल तक विधायक रहे और निजी तौर पर कोई चुनाव नहीं हारे।

मुथुवेल करुणानिधि ने बचपन में ही लिखने में काफ़ी दिलचस्पी पैदा कर ली थी, लेकिन, जस्टिस पार्टी के एक नेता अलागिरिसामी के भाषणों ने उनका ध्यान राजनीति की तरफ़ आकर्षित कर लिया। स्कूल में 50 पन्नों की पनगल राजा रामरायानिंगर कहानी, जस्टिस पार्टी के एक नेता और मद्रास प्रेसीडेंसी के एक पूर्व मुख्यमंत्री ने भी युवा करुणानिधि को प्रेरणा दी। करुणानिधि ने किशोरावस्था में ही सार्वजनिक जीवन की तरफ़ क़दम बढ़ा दिए थे। उन्होंने मद्रास प्रेसीडेंसी में स्कूल के सिलेबस में हिंदी को शामिल किए जाने के ख़िलाफ़ हुए विरोध-प्रदर्शनों में हिस्सा लिया था। मात्र 17 साल की उम्र में उनकी राजनीतिक सक्रियता काफ़ी बढ़ गई थी. करुणानिधि ने 'तमिल स्टूडेंट फ़ोरम' के नाम से छात्रों का एक संगठन बना लिया था और हाथ से लिखी हुई एक पत्रिका भी छापने लगे थे। उनकी मुलाकात 1940 के दशक की शुरुआत में सीएन अन्नादुरै से हुई, जो उनके सियासी गुरु बने। जब अन्नादुरै ने 'पेरियार' ईवी रामास्वामी की पार्टी द्रविडार कझगम (डीके) से अलग होकर द्रविड़ मुनेत्र कझगम यानी डीएमके की शुरुआत की, तब तक करुणानिधि उनके बेहद क़रीबी हो चुके थे। उस वक़्त महज़ 25 बरस की उम्र में करुणानिधि को डीएमके की प्रचार समिति में शामिल किया गया था। इसी दौरान, करुणानिधि ने फ़िल्मी दुनिया में भी क़दम रखा। उन्होंने सबसे पहले तमिल फ़िल्म 'राजाकुमारी' के लिए डायलॉग लिखे। इस पेशे में भी करुणानिधि को ज़बरदस्त कामयाबी मिली। सबसे ख़ास बात ये थी कि करुणानिधि के डायलॉग में सामाजिक न्याय और तरक़्क़ीपसंद समाज की बातें थीं। सन 1952 में आई फ़िल्म 'पराशक्ति' में करुणानिधि के लिखे ज़बरदस्त डायलॉग ने इसे तमिल फ़िल्मों में मील का पत्थर बना दिया। फ़िल्म के शानदार डायलॉग के ज़रिए अंधविश्वास, धार्मिक कट्टरता और उस वक़्त की सामाजिक व्यवस्था पर सवाल उठाए गए थे।

कल्लाक्कुडी नाम की जगह का नाम बदलकर डालमियापुरम करने के ख़िलाफ़ प्रदर्शन के चलते करुणानिधि छह महीने के लिए जेल में डाल दिए गए। इसके बाद से पार्टी में वो बहुत ताक़तवर होने लगे। अपने विचारों का ज़ोर-शोर से प्रचार करने के लिए करुणानिधि ने मुरासोली नाम के अख़बार का प्रकाशन शुरू किया। यही अख़बार बाद में डीएमके का मुखपत्र बना। मलाईकल्लन, मनोहरा जैसी फ़िल्मों में अपने शानदार डायलॉग के ज़रिए करुणानिधि तमिल फ़िल्मी उद्योग में सबसे बड़े डायलॉग लेखक बन चुके थे।

करुणानिधि ने 1957 से चुनाव लड़ना शुरू किया था। पहले प्रयास में वो कुलिथलाई से विधायक बने। करुणानिधि ने अपना आख़िरी चुनाव 2016 में थिरुवारूर से लड़ा था। इस विधानसभा क्षेत्र में उनका पुश्तैनी गांव भी आता है। कुल मिलाकर करुणानिधि ने 13 विधानसभा चुनाव लड़े और हर चुनाव में उन्होंने जीत हासिल की। जब 1967 में उनकी पार्टी डीएमके ने राज्य की सत्ता हासिल की, तो सरकार में वो मुख्यमंत्री अन्नादुरै और नेदुनचेझियां के बाद तीसरे सबसे सीनियर मंत्री बने थे। डीएमके की पहली सरकार में करुणानिधि को लोक निर्माण और परिवहन मंत्रालय मिले थे। परिवहन मंत्री के तौर पर उन्होंने राज्य की निजी बसों का राष्ट्रीयकरण किया और राज्य के हर गांव को बस के नेटवर्क से जोड़ना शुरू किया। इसे करुणानिधि की बड़ी उपलब्धियों में गिना जाता है। जब करुणानिधि के मेंटर सीएन अन्नादुरै की 1969 में मौत हो गई, तो वो मुख्यमंत्री बने। करुणानिधि के मुख्यमंत्री बनने से राज्य की राजनीति में नए युग की शुरुआत हुई थी।

करुणानिधि की पहली सरकार के कार्यकाल में ज़मीन की हदबंदी को 15 एकड़ तक सीमित कर दिया गया था। यानी कोई भी इससे ज़्यादा ज़मीन का मालिक नहीं रह सकता था। इसी दौरान करुणानिधि ने शिक्षा और नौकरी में पिछड़ी जातियों को मिलने वाले आरक्षण की सीमा 25 से बढ़ाकर 31 फ़ीसदी कर दी। क़ानून बनाकर सभी जातियों के लोगों के मंदिर के पुजारी बनने का रास्ता साफ़ किया गया। राज्य में सभी सरकारी कार्यक्रमों और स्कूलों में कार्यक्रमों की शुरुआत में एक तमिल राजगीत (इससे पहले धार्मिक गीत गाए जाते थे) गाना अनिवार्य कर दिया गया। 19वीं सदी के तमिल नाटककार और कवि मनोनमानियम सुंदरानार की लिखी कविता को तमिल राजगीत बनाया गया। करुणानिधि ने एक क़ानून बनाकर लड़कियों को भी पिता की संपत्ति में बराबर का हक़ दिया। उन्होंने राज्य की सरकारी नौकरियों में महिलाओं को 30 प्रतिशत आरक्षण भी दिया. सिंचाई के लिए पंपिंग सेट चलाने के लिए बिजली को करुणानिधि ने मुफ़्त कर दिया। उन्होंने पिछड़ों में अति पिछड़ा वर्ग बनाकर उसे पिछड़े वर्ग, अनुसूचित जाति और जनजाति कोटे से अलग, शिक्षा और नौकरियों में 20 फ़ीसदी आरक्षण दिया।

 

करुणानिधि के क़रीब आधी सदी लंबे नेतृत्व के दौरान डीएमके में दो बार टूट हुई। तमिल फ़िल्म स्टार एमजी रामचंद्रन ने डीएमके से अलग होकर अपने समर्थकों के साथ मिलकर अन्नाडीएमके (एडीएमके) की स्थापना की और अगले चुनाव में सत्ता पर क़ाबिज़ हो गए। 1993 में वाइको की अगुवाई वाले धड़े ने डीएमके से अलग होकर एमडीएमके की स्थापना की। इस टूट के दौरान कई ज़िलों के डीएमके के सचिव वाइको के साथ चले गए थे, लेकिन, करुणानिधि ने इसके बाद पार्टी को मज़बूत किया और अगले चुनाव में सत्ता में वापसी की।

करुणानिधि ने राष्ट्रीय राजनीति में अपनी पारी की शुरुआत, डीएमके को वीपी सिंह की अगुवाई वाले राष्ट्रीय मोर्चे का हिस्सा बनाकर की थी। उनके नेतृत्व में डीएमके 1998 से 2014 तक केंद्र की सरकारों में साझीदार रही। मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली पहली यूपीए सरकार में डीएमके के 14 मंत्री थे। डीएमके संचार जैसे अहम मंत्रालय हासिल करने में कामयाब रही थी, जबकि इससे पहले केंद्रीय कैबिनेट में तमिलनाडु की नुमाइंदगी नाम-मात्र को ही रहती थी।हालांकि, केंद्र सरकारों में शामिल होने पर करुणानिधि को काफ़ी विरोध का सामना भी करना पड़ा। डीएमके के बीजेपी से गठबंधन और फिर बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार में शामिल होने की कड़ी निंदा की गई थी। सरकार और संगठन में करुणानिधि के परिवार के सदस्यों के लगातार बढ़ते असर का भी कड़ा विरोध किया गया था। श्रीलंका में गृह युद्ध के आख़िरी दिनों में तमिल मूल के लोगों को बचाने के लिए करुणानिधि केंद्र सरकार पर दबाव बनाने में नाकाम रहे थे। इस बात के लिए भी उनकी कड़ी आलोचना हुई थी।

अपने पूरे सियासी करियर में करुणानिधि लगातार राज्यों की स्वायत्तता की वक़ालत करते रहे थे। उन्होंने इसके लिए जो भी क़दम हो सकते थे, वो उठाए भी। करुणानिधि ने 1969 में जस्टिस राजामन्नार की अगुवाई में केंद्र-राज्य संबंधों की जांच के लिए कमेटी बनाई थी। इस कमेटी ने केंद्र और राज्यों के संबंध कैसे हों, इस को लेकर कई सिफ़ारिशें की थीं। ये राज्यों की स्वायत्तता की लड़ाई में करुणानिधि का बड़ा योगदान था। करुणानिधि की कोशिशों से ही राज्यों के मुख्यमंत्रियों को अपने राज्य में स्वतंत्रता दिवस पर झंडा फ़हराने का अधिकार मिल सका। वे सच में कलाईग्नर थे।