पीएम नरेंद्र मोदी के पहले टीवी इंटरव्यू के कई मायने

Jul 09, 2016

                                                                                      (एन के सिंह )
कोई बड़ा नेता यू हीं इंटरव्यू नहीं दे देता, खासकर देश का प्रधानमंत्री और वह भी नरेन्द्र मोदी जैसा. इसके पीछे कोई उद्देश्य होता है जो काल, स्थिति और मैसेज को ध्यान में रख कर किया जाता है. फिर इसी के अनुरूप  माध्यम और संस्था और भाषा का चुनाव होता है.

देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राष्ट्र को संबोधित भी कर सकते थे. प्रेस कांफ्रेंस भी कर सकते थे या किसी ज्यादा प्रसार वाले अखबार या ज्यादा टी आर पी वाले हिंदी चैनल को भी यह इंटरव्यू भी दे सकते थे. पर उन्होंने एक अंग्रेज़ी का टी वी चैनल हीं क्यों चुना और फिर खुद हिंदी में हीं क्यों बोला, यह जानना जरूरी है.

राष्ट्र को संबोधित करना एकल संवाद होता है जैसे “मन की बात”. इसमें यह आभास नहीं मिलता कि जनता के सवालों का जबाव मिल रहा है. प्रेस कांफ्रेंस बेलगाम होता है और कई बार मूल आयाचित सन्देश प्रश्नों के अम्बार में खो जाता है. भारतीय जनमानस में औपनिवेशिक मानसिकता की वजह से आज भी अंग्रेज़ी को बौद्धिकता का पर्याय माना जाता है और साथ हीं कुछ हद तक बौद्धिक ईमानदारी का भी. लेकिन साथ हीं अंग्रेज़ी सवालों का हिंदी में जवाब ८० करोड़ से ज्यादा हिंदी बोलने और समझने वालों को अपने नेता की बात बोधगम्य बनाती है. दो साल से ज्यादा के शासन काल में निरपेक्ष विश्लेषकों के मन में हीं नहीं, जनता का मन में भी कुछ शंकाएं जन्म लेती हैं और उन शंकाओं का समाधान मात्र इसी तरीके से किया जा सकता था.

इस ८८ मिनट के इंटरव्यू में चार प्रमुख अन्तर्निहित सन्देश जो  प्रश्नों के उत्तर के रूप मे  थे प्रधानमंती देना चाहते थे. एक यह कि अगर देश का विकास सर्वोपरि है तो हर तीसरे दिन कोई सत्ता –पक्ष का नेता या मंत्री या भगवाधारी  भावनात्मक मुद्दे उठा क्यों उठा रहा है? क्यों कोई मंत्री “भारत माता की जय “ न कहने वालों को पाकिस्तान जाने की सलाह दे देता है और क्यों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के किसी अनुषांगिक संगठन का पदाधिकारी “मुसलमान –मुक्त भारत” की बांग दे देता है? शंका यह होती है कि मोदी ऐसे कद्दावर नेता के शीर्ष पर रहते हुए यह विरोधाभास क्यों. क्या इन गैर-विकास मुद्दों से माहौल खराब करने वालों को कोई मौन सहमति तो नहीं है?

प्रधानमंत्री ने बेहद खूबसूरती से इस इंटरव्यू के सवालों के जरिये यह साफ़ किया कि वह इस “ब्रांड की राजनीति” से अपने को अलग हीं नहीं रखते बल्कि एक चेतावनी भी थी कि एक सीमा के आगे इसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. साक्षात्कार में सवाल आया ---पार्टी के लोग इस तरह के मुद्दे उठाते हैं” और मोदी का जवाब था-- पार्टी हीं नहीं किसी के द्वारा भी अगर इस तरह की बात होती है तो वह गलत है और यह वे लोग करते हैं जो मीडिया में अपने प्रचार को आतुर रहते हैं. इसका सन्दर्भ ध्यान देने लायक है. तीन दिन पहले, हाल हीं में भारतीय जनता पार्टी द्वारा राज्य सभा भेज गए सुब्रह्मनियम स्वामी का रिज़र्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन पर अनर्गल आरोप लगाना और इस प्रक्रिया में मोदी सरकार के दूसरे कद्दावर नेता और वित्त मंत्री अरुण जेटली परोक्ष रूप से हमला करना. सन्देश यह जा रहा था कि यह हमला इतना सामान्य नहीं जितना दिखाई देता है और यह भी कि स्वामी पर संघ का वरदहस्त है. जेटली चीन यात्रा बीच में हीं रोक कर भारत वापस लौटना अनायास हीं नहीं है.

प्रधानमंत्री का सन्देश साफ़ था कि भविष्य में ऐसी स्थितियां पैदा करने वालों को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. शायद इससे सन्देश का विस्तार करते हुए मोदी ने यह भी कहा कि टीवी चैनलों के डिबेट में वह देखते हैं कोई प्रवक्ता कुछ कह रहा है. वह इनमें से कइयों को पहचानते भी नहीं हैं लेकिन मीडिया इन्हें ऐसे प्रोजेक्ट करता है जिससे वह अपने कद से बड़े हो जाते हैं. आशय यह था कि ये प्रवक्ता क्या कहते हैं पार्टी या सरकार की नीतियों के बारे में इससे सरकार के काम-काज की विश्लेषण नहीं किया जाना चाहिए. मोदी का यह सन्देश इसलिए भी सामयिक था क्योंकि पिछले कुछ दिनों से यह सोच उभरी है कि ये प्रवक्ता अहंकारी और असहिष्णु होते जा रहे हैं.

विदेश यात्राओं को लेकर मोदी ने यह बताना चाहा कि वह इसलिए व्यक्तिगत रूप से विश्व के तमाम नेताओं से मिल रहे हैं क्योंकि जमीनी पृष्ठभूमि से होने की वजह से उनके बारे में अन्य देशों में उनके बारे में अपरिपक्व जानकारी है जिससे कई बार देश का नुकसान हो सकता है. शायद उनका आशय गुजरात दंगों के बाद कुछ देशों द्वारा बनाई गयी उनकी छवि के सन्दर्भ में था. उनका यह याद दिलाना कि अमरीकी अख़बारों में उनकी हाल की यात्रा के दौरान यह बताया  कि बराक ओबामा की भारत के साथ मैत्री का वर्तमान मकाम अमरीकी राष्ट्रपति की कूटनीतिक सफलता का ध्योतक है मोदी के सन्देश का
सार था.

मंहगाई को यह कह कर कि दो सालों में जिस तरह का सूखा रहा और जिस तरह किसानों ने घबरा कर दलहन की जगह गन्ना बोने शुरू किया जिससे दाल  की कीमतों में वृद्धि हुई, कोशिश की कि जनता को आश्वस्त किया जाये कि स्थिति नियंत्रण में लाई जा सकेगी. हालांकि दलहन की पैदावार लगातार पिछले कई वर्षों से कम हुई है जबकि न्यूनतम समर्थन मूल्य यो पी ए सरकार ने भी बेतहाशा बढाया.

एक राजनीतिक सन्देश भी था जिसमें यह प्रयास था कि विपक्ष और कांग्रेस को अलग किया जाये. एक प्रशन के उत्तर में उन्होंने संसद में गतिरोध का आरोप विपक्ष पर लगाना गलत है और बगैर नाम लिए उन्होंने कांग्रेस को इसका दोषी बताया. गरीब राज्यों के लोगों के कल्याण से जी एस टी बिल को जोड़ते हुए उन्होंने यह कोशिश की कि जनता कांग्रेस के रवैये के प्रति नाराज हो और गैर -कांग्रेस विपक्षी दल  बिल के साथ हों.

महंगाई को छोड़ कर बाकि संदेश अपेक्षाकृत तार्किक और ग्राह्य कहे जा सकते हैं पर आगे जनता यह भी देखेगी कि क्या कोई मंत्री गिरिराज या कोई महंत या कोई सुब्रह्मनियम स्वामी फिर तो नहीं पुराना राग अलापने लगा. अगर ऐसा होता है जनता की शंका बनी रहेगी.

N K Singh
Senior Journalist
65, Niti Khand -3  (HIG Duplex)
Indirapuram, Ghaziabad -201014