जब संकट में हो सरकार - तब पहुंचे संघ के द्वार

Nov 24, 2018

 खरी खरी संवाददाता

भोपाल, 24 नवंबर। मध्यप्रदेश में सत्ता के लिए बीजेपी के शुभंकर बन चुके मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान बीते दिनों आधी रात के बाद ठिठुरते हुए संघ के अरेरा कालोनी स्थित क्षेत्रीय मुख्यालय समिधा पहुंचे तो न संघ को आश्चर्य हुआ होगा और न ही संघ को समझने वालों को...। तमाम मिथकों को तोड़ते हुए बीते पंद्रह साल से मध्यप्रदेश के सत्ता सिंहासन पर बिराजी बीजेपी के नेताओं ने यह सब सिर्फ अपने बूते पर नहीं कर लिया। इसके पीछे पार्टी के लाखों समर्पित कार्यकर्ताओं की कड़ी मेहनत के साथ उनके समर्पण की धुरी बनने वाले संघ की सोच और शक्ति की बड़ी भूमिका है। लगातार दो चुनाव जिताकर और 13 साल राजकर शिवराज सिंह भले ही समूची भाजपा के लिए सरकार बन गए हों लेकिऩ संघ के लिए वो सिर्फ शिवराज हैं.... एक समर्पित स्वयं सेवक जिन्हें सरकार बनाने और चलाने का दायित्व दिया गया है। इसलिए सरकार का आधी रात संघ के द्वार पहुंचना अचरज भले कराए लेकिन इतना जरूर संकेत देता है कि सरकार संकट में है...। संकट क्या है पता नहीं लेकिन इतना तय है कि इस विधानसभा चुनाव में हार की आशंका से बड़ा संकट कोई नहीं हो सकता है। सच्चे स्वयं सेवक होने के नाते शिवराज भी जानते हैं कि संघ के पास इस संकट का समाधान जरूर होगा। इसलिए नहीं कि संघ के पास कोई स्वप्न शक्ति है, बल्कि इसलिए कि जिस संकट की अनुभूति शिवराज सिंह को आज हो रही है, उस संकट को संघ ने दो साल पहले ही भांप लिया था और वह तभी से संकट मोचन बनने की तैयारी में जुट गया था। संघ की ग्रामीण क्षेत्रों में खंड सह बैठकें और शहरी क्षेत्रों में नगर सह बैठकें तब हो गई थीं, जब भाजपा ने चुनावी तैयारी की एबीसीडी भी नहीं शुरू की थी। संघ ने प्रदेश भर में समन्वय बैठकें करके सामाजिक जागरण पत्रक तब बंटवाने शुरू कर दिए थे, जब भाजपा यह सोच भी नहीं पाई थी कि इस बार घोषणापत्र में क्या विषय शामिल किए जाएंगे। संघ की इसी तैयारी के चलते मुख्यमंत्री और उनकी भाजपा संकट में संघ के द्वार पर खड़ी है।

संघ कोई पहली बार भाजपा की मदद नहीं कर रहा है और न ही पहली बार संकट मोचक की भूमिका में है। संघ हमेशा से जरूरत के समय यही करता आया है। अगर कहा जाए कि कांग्रेस को मध्यप्रदेश की सत्ता से बेदखल भाजपा ने नहीं संघ ने किया है तो कई अतिशयोक्ति नहीं होगी। भाजपा मध्यप्रदेश में जब दिसंबर 1992 में राममंदिर जैसे मुद्दे पर सरकार बर्खास्त होने के बाद भी सिर्फ 6 महीने बाद हुए विधानसभा चुनाव में सरकार नहीं बना पाई तो उसका बड़ा कारण संघ की खामोशी था। भाजपा के तत्कालीन दिग्गज नेताओं ने 1998 में भी कोशिश की लेकिन कई नेताओं के मुख्यमंत्री बनने की चाहत ने पार्टी को फिर सत्ता से बाहर रखा और दिग्विजय सिंह की अगुवाई में फिर कांग्रेस सत्तारूढ़ हुई। राजनीति के मद में चूर मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने संघ को सीधे ललकारना शुरू कर दिया। कभी भगवा आतंकवाद के नाम पर तो कभी सरस्वती शिशु मंदिरों पर गंभीर आरोप लगाकर..। ऐसे में संघ सियासत की लड़ाई में खुलकर सामने आया। मुख्यमंत्री बनने की चाह रखने वाले भाजपा के सारे दिग्गजों को किनारे कर दिया गया और संघ की पसंद उमा भारती को 2003 के चुनाव में मुख्यमंत्री फेस घोषित किया गया। संघ के क्षेत्रीय प्रचारक नरमोहन जी के निर्देशन में तैयारी शुरू हुई। भाजपा के दिग्गज नेताओं की बजाय संघ के तेज तर्रार अधिकारियों में गिने जाने वाले संघ के प्रांत संपर्क प्रमुख अनिल माधव दवे को चुनाव प्रबंधन सौंपा गया। उनकी टीम में किसी प्रमुख नेता को शामिल करने के बजाय उनकी और संघ की पसंद वाले विजेश लूनावत जैसे युवा नेताओं को शामिल किया गया। कृष्णुरारी मोघे जैसे कद्दावर नेता की छुट्टी कर कड़े अनुशासन के लिए कुख्यात संघ के प्रांत प्रचारक कप्तान सिंह सोलंकी को प्रदेश भाजपा का संगठन महामंत्री बनाया गया। संघ की तर्ज पर अनिल दवे ने चुनाव प्रबंधन मुख्यालय को जावली नाम दिया। नीति और रणनीति दोनों रंग लाई और कांग्रेस को प्रचंड बहुमत से हराकर भाजपा सत्तारूढ़ हो गई।

पांच साल बाद 2008 में फिर हुए विधानसभा चुनाव में फिर नई चुनौती का सामना करना पड़ा। जिन उमा भारती को 2003 में फ्रंट पर रखकर भाजपा के हाथों में सत्ता की चाबी सौंपी गई, वो उमा भारती विद्रोही हो गईं और अपनी खुद की पार्टी  भारतीय जनशक्ति बनाकर भाजपा के लिए चुनौती बन गईं। इसके चलते एक बार फिर संघ को मुख्य भूमिका में आना पड़ा। क्षेत्र प्रचारक विनोद जी की अगुवाई में रणनीति बनी। सौम्य और मेहनती अरुण जी को समन्वयक बनाया गया। माखन सिंह जैसे सीधे साधे प्रचारक को पार्टी में संगठन महामंत्री बनाकर उनके साथ अरविंद मेनन और भगवत शरण माथुर जैसे दो कुशल रणनीतिकारों को सह संगठन मंत्री बनाया गया। चुनाव की कमान एक बार फिर अनिल दवे को सौंपी गई। करीब पांच साल से हासिए पर चल रहे और मुख्यमंत्री की अनदेखी का शिकार रहे अनिल दवे ने एक बार फिर विजेश लूनावत जैसे भरोसेमंद साथियों के साथ संघ के कहने पर काम किया और फिर भाजपा सरकार में आ गई। पांच साल बाद 2013 में एक बार फिर संघ की शक्ति ने कमाल दिखाया और भाजपा सत्तारूढ़ हुई। राजनीतिक विश्लेषक भले ही इसका श्रेय शिवराज सिंह चौहान के कुशल नेतृत्व को दें लेकिन सच्चाई यह कि संघ की शक्ति ने बहुत कुछ किया। संघ ने 2013 में अनिल माधव दवे को चुनाव प्रबंधन की कमान सौंपी। अरविंद मेनन जैसे कड़े परिश्रमी को संगठन महामंत्री बनाया गया। प्रभात झा को अचानक हटाकर नरेंद्र सिंह तोमर को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया। संघ की ओर से सह क्षेत्र प्रचारक अरुण जी अघोषित रूप से निर्देशन की भूमिका में आए। यही सारे समीकरण भाजपा को सत्तारूढ़ करने में सफल रहे।

एक बार फिर 2018 के चुनाव हैं और सत्तारूढ़ भाजपा पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं तो वह संघ की शरण में पहुंच गई है। संघ एक बार फिर भाजपा की साख बचाने को सक्रिय हो गया है। संघ ने यह तैयारी काफी पहले शुरू कर दी थी, क्योंकि उसने संकट को काफी पहले भांप लिया था। संघ के अनुशांगिक संगठनों ने प्रदेश के आदिवासी अंचलों में सम्मेलन कर डाले। संघ प्रमुख मोहन भागवत के कई कार्यक्रम बीते एक साल में मध्यप्रदेश में हो गए। संघ की क्षेत्र सह और नगर सह बैठकें काफी पहले हो गईं। सामाजिक जागरण पत्रक संघ ने पूरे प्रदेश में बंटवा दिए। सरकार और संगठन दोनों की बैठकें लेकर संघ ने सच्चाई और रणनीति दोनों बता दी। संघ ने एक बार फिर संगठन महामंत्री बदल दिया और संघ के खांटी नेताओं में शुमार सुहास भगत संगठन महामंत्री हैं। संघ की पसंद के वीडी शर्मा, रजनीश अग्रवाल जैसे युवा नेताओं को पार्टी में सक्रिय किया गया है। संघ की ओर से अरुण जी फिर निर्देशन की अघोषित भूमिका में है। इस बार अनिल माधव दवे नहीं हैं। लेकिन उनकी टीम के स्थायी सदस्यों में शामिल विजेश लूनावत जैसे नेता चुनाव प्रबंधन संभाल रहे हैं। इसके बाद भी सब कुछ सहज नहीं लग रहा है। यही कारण है कि संघ की शक्ति पर भाजपा को भरोसा करना पड़ रहा है। कई कारण हैं कि संकट इस बार गहरा है। इसलिए हर बार की तुलना में इस बार साहबों के माथे पर चिंता की लकीरें भी ज्यादा हैं संघ के दरवाजे पर दस्तक का सिलसिला भी ज्यादा है।