चुनौतियों से जूझते भारतीय मीडिया को अभी बहुत सीखना है
एन.के. सिंह
नोबलपुरस्कार विजेता एवं विख्यातअर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने कुछ समय पहले मीडिया कीखराब गुणवत्ता की दो घटनाएं झेलीं। लोकपालसेसंबंधित एक प्रश्न के उत्तरमें उन्होंने जवाब दिया। अगले दिन जबउन्होंनेदेश के एक बड़े अंग्रेज़ीअख़बार और कई टी.वी चैनलों को देखा तबउसमेंशीर्षक पाया “ लोकपालविधेयक सूझ-बूझ से लाया गया बिल – अमर्त्य सेन ”। जबकि कुछ अखबारों नेशीर्षक दिया था- “ लोकपाल विधेयक बगैरसोचे-समझे लाया गया बिल- सेन ”। एक अन्य आर्थिक समाचार पत्र ने एक दिन पहलाशीर्षक दिया और दूसरे दिनदूसरा शीर्षक। एक अन्य बैठक में उसी दिन सेनने कैंसर पर भाषण दिया।एक अखबार की हेडलाइन थी- “ धूम्रपान एक निजी मामलाहै – सेन ” जबकि दूसरेअखबार ने- “ धूम्रपान करने वालों की आज़ादी पर रोकलगनी चाहिए- अमर्त्यसेन ”। तीसरी घटना का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा किदेश के एक बड़ेअंग्रेज़ी अखबार ने 15 दिसंबर को एक शीर्षक दिया- “ भ्रष्टाचार से जनतासड़क पर नहीं निपट सकती- अमर्त्य सेन ”। अमर्त्य सेन काकहना था किउन्होंने एक भी ऐसा स्टेटमेंट नहीं दिया और ऑडियो-टेप इसकेगवाह हैं। अपनीइस वेदना को व्यक्त करते हुए इस नोबल पुरस्कार विजेताने हालांकिप्रजातंत्र को मज़बूत करने में भारतीय मीडिया की भूमिका कोसराहा भी हैलेकिन उनकी यह अपेक्षा कि मीडिया को कम से कम तथ्यों के मामलेमें सचेतहोना चाहिए, हमें यह सोचने को मजबूर करता है कि पत्रकारिता केपेशे मेंहमें और बेहतर करने की ज़रूरत है। तथ्य को पेश करने में इतनाबड़ाविरोधाभास हमारी व्यावसायिक कुशलता पर प्रश्नचिह्न लगाता है। ऐसे समयमेंजबकि तकनीकि विकास के बाद से हर वक्तव्य रिकॉर्ड पर होता है, ऐसाविरोधाभासविषय को लेकर हमारी समझ पर प्रश्नचिह्न लगाता है और साथ ही साथयह भीप्रदर्शित करता है कि हम तथ्य देने में कहीं गैरज़िम्मेदार हैं। दरअसल इस पूरी समस्या के मूल में जाना होगा। पत्रकारिता में कौन सा वर्ग आरहा है ? उसके प्रशिक्षण के उपादान व संस्थाएं कैसी हैं ? पत्रकारों कीनियुक्ति में किन चीज़ों पर ध्यान देने की ज़रूरत है ? यह भी देखना उतनाहीज़रूरी होगा कि एक बार पत्रकारिता में आने के बाद अखबार या चैनल उन्हेकिसतरह से “ऑन-जॉब” ट्रेनिंग देते हैं। जैसे-जैसेसमाज प्रबुद्ध होताहैऔर उसकी तार्किक क्षमता बढ़ती है वैसे-वैसेसंस्थाओं से उसकीअपेक्षाएं भीबढ़ती जाती है। अंतर्संस्था-अंतर्क्रियाओंकी गुणवत्ताबदलने लगती है। उनसब के प्रति सुग्राह्य होना एक पत्रकार काशाश्वत भावहोना चाहिए। आजरिपोर्टरों का एक बड़ा वर्ग है जो सीधे देश कीसर्वोच्चप्रजातांत्रिकसंस्था संसद की रिपोर्टिंग के लिए भेज दिया जाता हैजबकिउसे यह नहींमालूम होता कि अन्य निचली संस्थाएं कैसे काम करती हैं यासंविधान मेंसंघीय ढ़ाचे के तहत किन संस्थाओं के क्या कर्तव्य औरजिम्मेदारियां हैं ? उदाहरण के तौर पर अगर एक पॉलिटिकल रिपोर्टर को, जोकि संसद की रिपोर्टिंगकरता है, ज़िला परिषद नाम की संस्था के कर्तव्य याअधिकार नहीं मालूम हैंतब वह प्रजातांत्रिक पद्धति को पूरी तरह न तोसमक्ष पाएगा और न हि उसकीरिपोर्टिंग परिपक्व होगी। चूंकिसामाजिकविकास एक सतत प्रक्रिया हैलिहाज़ा बेहतर यह होगा कि पत्रकारों कोसबसेनिचली संस्थाओं व प्रक्रियाओंसे गुज़ारा जाए। जैसे- थाना, शव-विच्छेदनगृह, नगरपालिका, विकासखण्ड, निचली अदालतें आदि। इसके बाद इन्हेराज्य केबड़े शहरों या राजधानी मेंबड़ी समस्याओं की रिपोर्टिंग के लिएएक नएरिफ्रेशर कोर्स के बाद भेजाजाए। यहां कहने का अभिप्राय यह नहीं हैकिनिचली संस्थाओं की रिपोर्टिंगकोई निम्न किस्म की पत्रकारिता है बल्कियहकि इन संस्थाओं के कार्यकलापोंव उपादेयता को जाने बगैर पूरीप्रजातांत्रिक व्यवस्था या संसदीय प्रणालीको समझना मुश्किल होता है। ऐसेतमाम वरिष्ठ पत्रकार मिलते हैं जो बगैरउत्तरप्रदेश गए पूरे चुनाव काविश्लेषण कर देते हैं जबकि उन्हें यह भीनहीं मालूम होता कि उत्तरप्रदेशमें मुस्लिम आबादी का प्रतिशत कितना है, या बुंदेलखण्ड प्रदेश के पश्चिममें है या पूर्व में या मानव विकाससूचकांक क्या होता है और किन आधार परबनाया जाता है। अभीहाल ही मेंचंडीगढ़ हाईवे के पास दो सांड़ों कीजबर्दस्त लड़ाई हुयी। कईगाड़ियांक्षतिग्रस्त हुयी। ऑन जॉब ट्रेनिंग नहोने की वजह से ही एंकर नेस्पॉट परपहुंचे रिपोर्टर से लाइव चैट मेंपूछा – दोनो सांड़ किस बात पर लड़े थे ? जाहिर है कि एंकर को समुचितट्रेनिंग नहीं दी गयी है। यहां यह भी बतानाज़रूरी है किभारतीय पत्रकारिता की बुराई करने वालों का एक बड़ा वर्ग है जो स्वयं सुविधाभोगी रहा है और पत्रकारिता की बुराई वह “ इंटलेक्चुअल जिमनास्टिक्स ”(बुद्धि-विलास)के रूप में करता है।