कमलनाथ की सक्रियता कितना रंग लाएगी
कांग्रेस ने मध्यप्रदेश से राज्य सभा की एक सीट पूरी रणनीति के साथ जीतकर इस बात का संकेत दे दिया है कि वह 2018 के विधानसभा चुनाव की तैयारियों में जुट गई है। राज्यसभा के चुनाव में देश के जाने माने वकील विवेक तनखा को जितवाने के लिए कांग्रेस के नेताओँ ने जिस तरह एकजुटता दिखाई वह बीते करीब 12 साल में पहली बार देखने को मिली है। नहीं तो... यही विवेक तनखा 2006 में इसी तरह की परिस्थितियों में मध्यप्रदेश से राज्यसभा चुनाव हार चुके हैं। लेकिन इस बार कांग्रेस के नेताओं ने 2006 का इतिहास नहीं दोहराने का संकल्प ले लिया था और वे इसमें सफल भी रहे।
इस चुनाव में कांग्रेस की एक जुटता ने उसे राज्य सभा की एक सीट दिलवाने के साथ एक संकेत और दिया है कि अब शायद बहुत जल्द प्रदेश कांग्रेस की बागडोर कमलनाथ के हाथ में आ जाए। कई दिनों से इस बात के कयास लगाए जा रहे हैं कि अगले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर कमलनाथ को पीसीसी का मुखिया बनाया जा सकता है। पार्टी के नेताओं का मानना है कि कमलनाथ के आने से प्रदेश के दिग्गज नेताओँ के गुट खुल्लम-खुल्ला विरोध की राजनीति नहीं कर पाएंगे और उससे भी बड़ी बात है की कमलनाथ प्रदेश कांग्रेस को वित्तीय संकट से निकालने में भी कामयाब होंगे। इसके संकेत राज्यसभा चुनाव के दौरान दिखाइ भी पड़े। कमलनाथ ने तन्खा की जीत के लिए जरूरी बसपा विधायकों को कांग्रेस के पाले में करने के लिए लखनऊ तक की दौड़ लगाई और सीधे मायावती से समझौता कर लिया। बसपा के चरित्र को समझने वाले राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि ये समझौता मुफ्त में नहीं हुआ होगा। मध्यप्रदेश में कांग्रेस कार्यालय की स्थिति ऐसी नहीं है कि इस तरह के समझौतों का वजन उठा सके।
ऐसा माना जा रहा है कि कमलनाथ भी पीसीसी बनकर अगले चुनाव की अगुवाई करने को तैयार हैं। तभी तो वह तन्खा के चुनाव में पूरी निष्ठा के साथ पार्टी व तन्खा का साथ देते दिखाई पड़े, जबकि तन्खा के नेता बन जाने से महाकौशल ने कांग्रेस की राजनीति का ध्रुवीकरण होगा और उसका सबसे अधिक असर कमलनाथ पर ही पड़ेगा। सिंधिया अपने गढ़ ग्वालियर में किसी बड़े नेता को पनपने नहीं देते, दिग्विजय सिंह गुना राजगढ़ सहित कई इलाकों में सिर्फ अपने बेटे को स्थापित करने में लगे हैं। सुरेश पचौरी का वजूद किसी बड़े नेता को स्थापित करने लायक बचा नहीं हैं। ऐसे में कमलनाथ महाकौशल में किसी बड़े नेता के स्थापित होने में सहयोग करते हैं तो इसका सीधा अर्थ है कि उनका निशाना किसी बड़े टार्गेट पर है। हालांकि कमलनाथ के पास पूरे प्रदेश में दिग्विजयसिंह या सिंधिया जैसी कार्यकर्ताओं की फौज नहीं है लेकिन माना जा रहा है कि अगर कमलनाथ छिंदवाड़ा से बाहर निकलते हैं तो वर्तमान कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव से नाराज और बारह साल से सत्तारूढ़ बीजेपी सरकार की दादागिरी झेल रहे कार्यकर्ता अपने आप कमलनाथ के साथ खड़े हो जाएंगे, अगर कमलनाथ को कमान सौंपने का फैसला जल्दी हो जाता है तो विधानसभा चुनाव के पहले उपचुनावों में उनकी रणनीति का लिटमस टेस्ट भी हो जाएगा, क्योंकि बहुत जल्द प्रदेश को एक लोकसभा और एक विधानसभा उप चुनाव का सामना करना पड़ेगा। शहडोल के सांसद दलपत सिंह परस्ते और नेपानगर के एमएलए राजेंद्र सिंह हाल ही में निधन हुआ है और छह महीने के भीतर दोनों जगह उपचुनाव होंगे। ये दोनों सीटें भाजपा की हैं और इतिहास बताता है कि भाजपा उपचुनाव आसानी से निकाल लेती है। ऐसे में कमलनाथ की रणनीति और नेतृत्व दोनों का टेस्ट हो जाएगा।
भारतीय जनता पार्टी भी शायद कांग्रेस की रणनीति को समझ गई है, इसलिए पार्टी ने अपने दिग्गज नेताओं को कमलनाथ की मुखालफत पर लगा दिया है, विशेषकर पार्टी के राष्ट्रीय महामंत्री और कांग्रेस विरोध में माहिर कैलाश विजयवर्गीय को कमान सौंपी गई है, तभी तो कमलनाथ को पंजाब का प्रभारी बनाए जाते ही पहली विरोधी टिप्पणी कैलाश विजयवर्गीय की तरफ से आई। इनकी टिप्पणी को प्रदेश भाजपा ने सोशल मीडिया के जरिए प्रचारित किया। बहुत दिनों बाद विजयवर्गीय के बयानों को प्रदेश भाजपा ने हाईलाइट
किया है। यह साफ संकेत है कि मध्यप्रदेश की सियासत में कोई बड़ा बदलाव होने जा रहा है। अगर भाजपा ने इसी तरह बड़े कद के नेताओं को आगे कर दिया तो कमलनाथ की राह आसान नहीं होगी।