सच में कब खत्म होगा आधी आबादी का संघर्ष

Mar 08, 2018

सुमन त्रिपाठी

हम एक बार फिर महिला दिवस मनाने जा रहे हैं। हर बार की तरह इस बार भी महिलाओं को सम्मान देने की तमाम घोषणाएं की गई हैं। समाज के विभिन्न क्षेत्रों में यह दिखाने की कोशिश हो रही है कि महिलाओं के लिए बहुत कुछ किया जा रहा है। यह सही है कि आज हमारी आधी आबादी आसमां में उड़ान भर रही है। वह कविवर जयशंकर प्रसाद की ‘’नारी तुम केवल श्रद्धा हो….’’अथवा मैथलीशरण गुप्त की...”अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी…“ जैसी कल्पनाओं अथवा परिभाषाओं से काफी परे जा चुकी है। वह श्रद्धा अथवा अबला की बजाए शक्ति बन चुकी है। इसके बावजूद वह आज भी अपने हक के लिए संघर्ष कर रही है। यह हमारे समाज की एक कटु सच्चाई है। जब तक इस रंग को नहीं बदला जाएगा, तब तक तस्वीर धुंधली ही रहेगी।

नारी, स्त्री, महिला, औरत, खवातीन नाम चाहे जितने रख दिए जाएं, इससे बदलाव नहीं आएगा। बदलाव इससे भी नहीं आएगा कि अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर केंद्र सरकार देश भर के टोल प्लाजा पर महिलाओं की ड्यूटी लगाएगी। मध्यप्रदेश सरकार हाईकोर्ट में अपने सभी केसों की पैरवी के लिए महिला वकीलों को खड़ा करेगी। एक दिन के प्रयोग को सिर्फ चोंचलेबाजी ही कहा जाएगा। हमारी सरकारें रोज ऐसा क्यों नहीं कर सकती हैं। अगर समाज और सरकार दोनों ठान लें कि आधी आबादी को उसका हक सच में देना है, तो शायद उन्हें महिला दिवस जैसे मौकों पर कोई स्वांग नहीं करना पड़ेगा। ऐसा नहीं है कि महिलाओं के लिए अभी कुछ नहीं हो रहा है। आज सरकारें बहुत कुछ कर रही हैं और समाज भी उसे स्वीकार कर रहा है। लेकिन सरकार और समाज दोनों की सोच में ईमानदारी नहीं है। सरकारें सिर्फ वोट बैंक मानकर महिलाओं के लिए अपना उत्साह दिखा रही हैं और समाज इसे सिर्फ जरूरत अथवा मजबूरी मानकर स्वीकार कर रहा है। अगर ऐसा नहीं होता तो निकाय चुनावों में पचास फीसदी आरक्षण के बावजूद महिलाओं को जनप्रतिनिधि के रूप में चुनने के लिए टोटा नहीं पड़ता। आज सिर्फ मध्यप्रदेश की बात करें तो करीब दो लाख महिलाएं पंच जैसे पदों पर निर्वाचित होकर काम कर रही हैं। एक लाख के करीब महिलाएं सरपंच अथवा जनपद अध्यक्ष जैसे महत्वपूर्ण पदों पर हैं। लेकिन हम सभी जानते हैं कि इसके बावजूद फैसले पुरुष ही ले रहे हैं। फैसलों के नाम पर महिलाओं की सिर्फ मोहर लगती है। फैसलों में उनकी भागीदारी तक नहीं होती है। उनके पति अथवा अन्य कोई खास रिश्तेदार फैसले करते हैं और उन पर महिला जनप्रतिनिधि की मोहर भर लगा दी जाती है और उसके हस्ताक्षर करा लिए जाते हैं। कई जगह तो बैठकों तक में उन्हें सहभागी नहीं बनाया जाता है। उनके पति अथवा रिश्तेदार ही फैसला भी कर लेते हैं और उसके पद की मोहर लगाकर उसके हस्ताक्षर भी खुद कर देते हैं। महिला को तो फैसलों के बारे में बताया तक नहीं जाता है। जब तक समाज की यह सोच नहीं बदलेगी तब तक महिलाओं को उनका वास्तविक हक नहीं मिल पाएगा। सरकारों की समस्या यह है वे सब कुछ जानने के बाद भी खामोशी ओढ़ लेती हैं। सरकार में बैठे लोगों की राजनीतिक मजबूरियां ऐसा करने के लिए उन्हें मजबूर करती हैं। इस सोच में भी बदलाव करना पड़ेगा।

महिला दिवस मनाने की परंपरा को एक तरह सौ साल पूरे होने जा रहे हैं। महिला अधिकारों के लिए अलग नीतियों के साथ साल में एक दिन सिर्फ महिलाओं के लिए समर्पित करने की शुरुआत वैसे तो 1909 में संयुक्त राज्य अमेरिका में हो गई थी। तब फरवरी के आखरी रविवार को महिला दिवस के रूप में मनाया जाता था। इसे अंतर्राष्ट्रीय मान्यता 1975 में संयुक्त राष्ट्र संघ की घोषणा के साथ मिली। लेकिन वास्तव में देखा जाए तो 1917 में रूस में महिलाओं को मताधिकार देने के साथ महिला को आधुनिक समाज में बराबरी का दर्ज मिलने की परंपरा शुरू हुई थी। जार के शासन को अपने आंदोलन बेतख्त करके महिलाओं ने रूस में नए युग की शुरुआत की थी। उसके बाद उन्हे 8 मार्च 1917 को उनके अधिकारों से नवाजा गया। महिला दिवस की वास्तविक शुरुआत तभी से मानी जानी चाहिए। यह तारीख चूंकि ग्रेगेरियन कैलेंडर के अनुसार थी, जिसे दुनिया के अधिकांश देश मानते हैं, इसलिए 8 मार्च को महिला दिवस मनाने की परंपरा को भी अब सौ साल  का माना जाना ही ठीक होगा। पर असल मुद्दा यह नहीं है कि महिला दिवस कब से माना जाना चाहिए और क्यों माना जाना चाहिए। मूल मुद्दा यह है कि हमारा समाज “यत्र नारियस्तु पूज्यते तत्र रमते देवता” की पुरातनकालीन कहवातों पर अमल करना कब शुरू करेगा। आज जिस तरह से महिलाएं अपने आप को असुरक्षित महसूस करती हैं, उसमें कैसे कहा जा सकता है कि यह समाज उन्हें पूजने की वैदिक परंपरा वाला है। रूस में 1917 में जो स्थिति थी, उसे आज के संदर्भों में देखा जाए तो बहुत बदलाव नहीं आया है। तब महिलाओं को मताधिकार भले ही नहीं था, लेकिन समाज उसे कोख में ही नहीं मारता था। कभी सड़कों से गुजरते समय उस पर भद्दी टिप्पणियां नहीं की जाती थीं। तब निर्भायाएं सच में निर्भय होकर समाज के सामने रहती थीं। सामाजिक कुरीतियों की बात अगर छोड़ दी जाए तो महिलाएं सम्मानित और संस्कारित स्थिति में हुआ करती थीं। आज उस निर्भया को अपने शहर की ही राह चलने में डर लगता है। कहने को तो वह बराबरी के साथ काम कर रही है, लेकिन बराबरी है कहां... बराबरी सिर्फ कमाई के मामले में है। घर वाले चाहते हैं कि वह कमाई तो बराबरी से करे लेकिन अपने सपनों को, अपने अरमानों को और यहां तक कि अपनी इच्छाओं को भी मार दे। वह पति के बराबर कमाए, वह भाई के बराबर कमाए लेकिन लाकर सब घर में दे दे। उससे कम कमाने वाले पति और भाई शाम को अपनी कमाई का एक हिस्सा बार में उड़ा दें तो कोई हर्ज नहीं, लेकिन उनके बराबर या उनसे ज्यादा कमाने वाली पत्नी या बहन अकेले बाजार में खड़े होकर पानी पूरी भी खा ले तो गलत हो जाता है। पति और भाई रात 12 बजे तक भी घर न आएं तो सवाल नहीं उठेगा लेकिन वह अगर शाम आठ बजे तक घर नहीं पहुंचे तो हंगामा खड़ा हो जाएगा, उससे सौ सवाल पूछे जाएंगे। उसे हक नहीं है कि वह अपने सहकर्मियों के साथ बाजार जाकर शापिंग कर सके। यह स्थिति हमारे अधिकांश घरों में है। हम आज जो थोड़ा बहुत बदलाव देखते हैं, वह बहुत कम प्रतिशत में है। अगर हजार महिलाएं खुली हवा में सांस लेती दिखाई पड़ती है तो लाख महिलाएं आज भी आफिस के बाद घरों की चहारदिवारी में खाना बनाते औऱ बिस्तर लगाते समय बिताती हैं। पापा, भैया, पति का इंतजार करती हैं ताकि वो आकर खाना खा लें तो उनका आज का एजेंडा पूरा हो जाए।

समाज की यह स्थिति खुद हमारे समाज ने बनाई है। बेटी, बहन, बीबी बाहर हो तो हर कोई डरता रहता है। लेकिन यह डर क्यों, बाहर भी तो समाज के ही लोग हैं। इसका मतलब हमें अपने ही लोगों से डर लगता है। फिर तो महिलाओं के साथ होने वाले हादसों के लिए और अपराधों के लिए हमी जिम्मेदार हुए। फिर तो बदलाव भी हमें अपने अंदर ही करना पड़ेगा। सियासी दलों और सरकारों को तो सिर्फ वोट से मतलब होता है। हम जब उन्हें अपने अंदर बदलाव दिखा देंगे तो वे अपने आप बदल जाएंगे। देश में बलात्कार के मामले अपने आप घट जाएंगे। घर से निकलने पर महिलाएं अपने आप खुद को सुरक्षित महसूस करेंगी। उन्हें लगेगा कि समाज ने और सरकार ने उनके लिए कुछ किया है। महिला दिवस पर होने वाले आयोजन उन्हें ढकोसले नहीं लगेंगे। यह सब नहीं होगा तो आधी आबादी संघर्ष करती रहेगी और हम मूक दर्शक की तरह देखते रहेंगे। इतिहास में सब लिखा जाएगा। हमें रामधारी सिंह दिनकर की काव्य पंक्तियां याद रखनी चाहिए....

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र।

जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी इतिहास।

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