आने वाले कई सालों तक किवदंती बने रहेंगे बाबूलाल गौर
अजय त्रिपाठी
जिंदगी के नौ दशक बिताकर फानी दुनिया को अलविदा कहने वाले मध्यप्रदेश की सियासत के दिग्गज नेता बाबूलाल गौर आने वाले कई सालों तक किवदंती बने रहेंगे। एक शराब कंपनी के अदने से मजदूर से लेकर प्रदेश के मुख्यमंत्री तक का उनकी जिंदगी का सफर किसी परीकथा से कम नहीं है। शून्य से शिखर तक पहुंचने के उनके सफर में हर मोड़ पर दिलचस्प किस्सागोई भरी है। कैसे..उत्तरप्रदेश के छोटे से गांव का यादव परिवार मध्यप्रदेश की राजधानी का जाना माना गौर परिवार बन गया। कैसे…एक मजदूर प्रदेश की सियासत का अजेय योद्धा बन गया। कैसे… लाल झंडा उठाने वाला युवक आरएसएस का कट्टर स्वयं सेवक बन गया। कैसे एक आम आदमी मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बन गया। उनकी जिंदगी तमाम किस्सों से भरी है। बहुत कम से बहुत कुछ बनने वाले बाबूलाल गौर ताजिंदगी एक सहज और सरल इंसान बने रहे। यही उनकी सबसे बड़ी खूबी थी। उत्तरप्रदेश के प्रतापगढ़ जिले की कुंडा तहसील के छोटे से गांव नौगीर में 2 जून 1930 को जन्मे बाबूलाल के पिता प्रेमलाल यादव बहुत साधारण किसान थे। गांव में एक बार दंगल हुआ तो पहलवान पिता ने भी अखाड़े में दांव आजमाया। यही दांव इस परिवार की जिंदगी का टर्निंग प्वाइंट बन गया। पिता प्रेमलाल दंगल जीत गए तो उन्हें उनके गांव से सैकड़ों किलोमीटर दूर भोपाल में नौकरी का आफर मिल गया। एक पारसी शराब कंपनी में सेल्समैन की नौकरी। आर्थिक संकटों से जूझ रहे प्रेमलाल ने यह आफर मंजूर कर लिया। भोपाल में सब कुछ जम गया तो परिवार को भी यहीं ले आए। इस तरह किशोर वय के बाबूलाल यादव अपने गांव नौगीर से भोपाल आ गए। पढ़ाई के साथ साथ पिता के काम में भी हाथ बंटाने लगे। स्कूल की कक्षा में शिक्षक को बड़े गौर से सुनते थे तो शिक्षक ने उनका नाम ही गौर रख दिया और बाबूलाल अपने शिक्षक के कारण यादव से गौर हो गए। पिता के निधन के बाद कंपनी ने शराब दुकान ही उन्हें दे दी, लेकिन उनका मन शराब बेचने में लगा नहीं। इसलिए छोड़कर वापस गांव चले गए लेकिन आर्थिक तंगी उन्हें वापस भोपाल ले आई। इस बार शराब दुकान चलाने के बजाय कपड़ा मिल में मजदू बन गए। वहीं लाल झंडा वाली वामपंथी यूनियन से जुड़ गए, लेकिन बार बार हड़ताल के कारण मजदूरों की तनख्वाह कटने से दुखी होकर उन्होंने लाल झंड़ा छोड़कर कांग्रेस की छाप वाले मजदूर संगठन इंटका का दामन थाम लिया। वहां भी उनका दिल नहीं लगा और तब आरएसएस से जुड़ चुके गौर ने भारतीय मजदूर संघ का दामन थामा और उसी के होकर रह गए। इसी के साथ ही गौर का सियासी सफर भी शुरू हो गया। उन्होंने पहली बार 1956 में पार्षद का चुनाव लड़ा जिसमें पराजय का सामना करना पड़ा। उसके बाद 1972 में जनसंघ के टिकट पर गोविंदपुरा सीट से पार्षद का चुनाव लड़ा और फिर पराजित हो गए। इसके बाद 1974 में जयप्रकाश नारायण के कहने पर और कुशाभाऊ ठाकरे की सहमति से उन्होंने निर्दलीय रूप में भोपाल दक्षिण सीट से विधानसभा चुनाव में किस्मत आजमाई और सफल रहे। इसके बाद उन्हें कभी हार का सामना नहीं करना पड़ा। वे 1977 में गोविंदपुरा सीट से जनता पार्टी के टिकट पर लड़कर जीते और जिंदगी के आखिरी चुनाव तक इसी सीट से लड़ते और जीतते रहे। उन्होंने भारी मतों से जीत का रिकार्ड भी बनाया। उन्होंने कुल नौ बार इस सीट से विधानसभा का चुनाव जीता। उनकी उम्र को देखते हुए 2018 के चुनाव में उन्हें टिकट नहीं दिया गया और उनके स्थान पर उनकी पुत्रवधू कृष्णा गौर प्रत्याशी बनीं और विजयी हुईं। जब 1990 में पहली बार मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार बनी तो बाबूलाल गौर स्थानीय शासन, विधि एवं विधायी कार्य, संसदीय कार्य, जनसम्पर्क, नगरीय कल्याण, शहरी आवास तथा पुनर्वास एवं 'भोपाल गैस त्रासदी' राहत मंत्री बने। मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा की मन:दशा को भी हासिए पर रखकर उन्होंने भोपाल के विकास का बीड़ा उठाया। उन्होंने प्रभावशाली लोगों के बड़े बड़े अतिक्रमण धराशायी करा दिए। यह मुहिम भोपाल के बाद प्रदेश के अन्य शहरों में जमकर चली। अतिक्रमण की चपेट से बाहर आकर शहर सुंदर हो गए और बाबूलाल गौर के साथ बुलडोजर मंत्री का तमगा लग गया। प्रदेश में कांग्रेस की सरकार आई तो गौर 4 सितम्बर, 2002 से 7 दिसम्बर, 2003 तक मध्य प्रदेश विधान सभा में नेता प्रतिपक्ष भी रहे। इसके बाद उमा भारती की अगुवाई में मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार बनी तो गौर फिर नगरीय प्रशासन मंत्री बने। बाद में उन्हें गृह मंत्री बनाया गया। उमा भारती को कानूनी दिक्कतों के कारण जब अगस्त 2004 में मुख्यमंत्री का पद छोड़ना पड़ा तो उन्होंने गौर को अपना उत्तराधिकारी बनवा दिया। इस तरह 23 अगस्त 2004 को बाबूलाल गौर सियासत के बड़े ओहदे पर पहुंच गए। एक मजदूर सफर करते हुए मुख्यमंत्री बन गया। उमा भारती ने जब दुबारा मुख्यमंत्री बनना चाहा और गौर को पद छोड़ने के लिए कहा तो उन्होंने साफ मना कर दिया। उमा भारती ने इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया। अंतत: सियासत का खेल दोनों को भारी पड़ गया। गौर को मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी लेकिन उमा को भी कुर्सी नहीं मिली। मुख्यमंत्री बने शिवराज सिंह चौहान। सहजता के साथ सियासत के महारथी गौर ने उमा भारती की जिद पूरी नहीं होने दी। गौर की सजहता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने सीएम पद छोड़ने के बाद शिवराज सिंह चौहान की कैबिनेट में मंत्री बनना स्वीकार कर लिया। भाजपा को अपना सब कुछ देने वाले बाबूलाल गौर जिंदगी के आखिरी दिनों में पार्टी की रुसवाई से नाखुश थे। पहले उनसे उनका पसंदीदा नगरीय प्रशासन विभाग छीना गया,फिर उम्र का हवाला देकर उन्हें कैबिनेट से बाहर कर दिया गया। हालांकि 2018 के चुनाव में उनके स्थान पर उनकी पुत्रवधू को टिकट देकर पार्टी ने सब ठीक करने की कोशिश की थी, लेकिन गौर के मन की ठेस पूरी तरह खतम नहीं हुई। लगभग एक पखवाड़े तक अस्पताल में जिंदगी और मौत के बीच हुई जंग में जिंदगी हार गई और बाबूलाल गौर एक किवदंती बन कर इस दुनिया से विदा हो गए।