कुच्ची का कानून-स्त्री की कोख पर सिर्फ उसका अधिकार

Dec 28, 2019

खरी खरी संवाददाता

भोपाल, 28 दिसंबर। बहुकला केंद्र भारत भवन में चल रहे अतिथि नाट्य प्रस्तुति समारोह के तहत शुक्रवार को नाटक कुच्ची का कानून मंचित किया गया। पटना की संस्था प्रवीण सांस्कृतिक मंच द्वारा विजेंद्र कुमार टांक के निर्देशन में मंचित यह नाटक जाने माने कथाकार शिवमूर्ति की कहानी पर आधारित है। इस कहानी का नाट्य रूपांतरण अविजित चक्रवर्ती ने किया है। इसमें गांव की कम पढी लिखी विधवा कुच्ची के माध्यम से यह ज्वलंत सवाल उठाया गया है कि संतान को नौ महीने गर्भ में रखने और उसे जन्म देने वाली कोख पर सिर्फ स्त्री का अधिकार है। शिवमूर्ति की इस ज्वलंत कहानी की मुख्य पात्र कुच्ची सातवीं पास गांव की युवती है। उसके पति की मृत्यु शादी के कुछ समय बाद ही हो जाती है। गांव की परंपरा के अनुसार कुच्ची के मायके वाले उसे अपने साथ ले जाकर उसकी दूसरी शादी करना चाहते हैं। तमाम घटनाक्रम के चलते कुच्ची बुजुर्ग और बेसहारा सास ससुर को छोड़कर नहीं जाती है। कुच्ची नि:संतान और अकेली है। ऐसे में उसका जेठ बनवारी उस पर कुदृष्टि रखता है। उसे लालच है कि ऐसे कुच्ची भी उसकी हो जाएगी और उसकी संपत्ति पर भी उसका हक हो जाएगा। ऐसे में अपने बचाव के लिए कुच्ची बहुत बड़ा फैसला करती है। वह अपनी कोख से संतान पैदा करने की ठान लेती है, ताकि उसकी संपत्ति का वारिस उसकी कोख से पैदा हो। पति की मौत के दो साल बाद कुच्ची के गर्भवती होने की खबर गांव में आग की तरह फैल जाती है। गांव में पंचायत होती है और कुच्ची को पंचायत की अदालत में खड़े होना पड़ता है। इस अदालत में सातवीं पास विधवा युवती अपने तमाम तर्कों और दृष्टांतों से पौरुष दंभ से भरे पंचायत के मर्दवादी समाज को हर बार निरुत्तर कर देती है। कुच्ची पंचायत से कहती है कि "मुझे जरूरत लगी महराज। मेरा आदमी तो एक बार मरकर फुरसत पा गया लेकिन बेसहारा समझकर हर आदमी किसी न किसी बहाने मुझे रोज मार रहा था। मैं मरते-मरते थक गई तो जीने के लिए अपना सहारा पैदा कर रही हूं। वह पंचायत के सवाल पर उल्टा सवाल करती है कि ‘मेरी गोद भरने से, मुझे सहारा मिलने से गांव की नाक कैसे कट जाएगी बाबा? क्या मेरे भूखे सोने से गांव के पेट में कभी दर्द हुआ? जेठ की धमकी से डरकर जब हम तीनों परानी रात भर बारी-बारी घर के भीतर पहरेदारी करते हैं, तो क्या गांव की नींद टूटती है? जब यह बहाने बनाकर मुझे और मेरे ससुर को गरियाता-धमकाता है, तो क्या गांव उसे रोकने आता है? जब मेरी भूख पूरे गांव की भूख नहीं बनती, मेरा डर पूरे गांव का डर नहीं बनता, मेरा दुःख-दर्द पूरे गांव का दुःख-दर्द नहीं बनता, तो मेरे किए हुए किसी काम से पूरे गांव की नाक कैसे कट जाएगी?’ कोखमेरी है और इस पर सिर्फ मेरा अधिकार है।