दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन सौ साल में कितना बदला

खरी खरी डेस्क
भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के सपने के साथ शुरु हुआ देश ही नहीं दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ-आरएसएस अपनी स्थापना के सौ साल पूरे कर चुका है। सारी दुनिया में संघ से जुड़े लोग शताब्तदी वर्ष समारोह मना रहे हैं। ऐसे में एक विचार सभी के मन में उठता है कि सौ साल की यात्रा में संघ कितना बदला है। आरएसएस का का बीजरोपण साल 1925 की विजयादशमी पर नागपुर शहर में कांग्रेस से नाराज होकर समाजसेवा के पथ पर आगे बढ़ने वाले महाऱाष्ट्रीय डा केशव बलिराम हेडगेवार ने किया था। वह बीज आज वट वृक्ष बन गया है। संघ भारतीय समाज और राजनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता आया है। पिछले सौ वर्षों में आरएसएस ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं और उसने खुद को देश के सामाजिक और राजनीतिक परिपेक्ष्य में बहुत हद तक बदलते हुए पाया है। आरएसएस का सफर शुरुआती दिनों से लेकर आज तक काफी दिलचस्प और विवादास्पद रहा है।
आरंभिक दशकों में आरएसएस का उद्देश्य
आरएसएस की शुरुआत एक समर्पित हिंदू संगठन के रूप में हुई थी, जिसका उद्देश्य हिंदू समाज को संगठित करना और भारतीय संस्कृति और परंपराओं को बचाना था। डॉ. हेडगेवार ने संघ की स्थापना के पीछे भारतीय समाज की एकता को बनाए रखने और उसे ब्रिटिश उपनिवेशवाद से मुक्त करने का सपना देखा था। आरएसएस की शुरुआती गतिविधियाँ सैन्य संरचना जैसी थीं, जिनमें शारीरिक प्रशिक्षण और अनुशासन को प्रमुखता दी जाती थी।
1950-1980: राजनीतिक प्रभाव का विस्तार
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, आरएसएस ने धीरे-धीरे अपने पैर राजनीति में फैलाने शुरू किए। इसकी नीति और विचारधारा, जो हिंदू राष्ट्रवाद पर आधारित थी, ने भारतीय समाज में एक विशिष्ट पहचान बनाई। 1950 के दशक में आरएसएस ने कई सामाजिक और सांस्कृतिक संस्थाओं के माध्यम से अपने प्रभाव को बढ़ाया। हालांकि, आरएसएस का यह वैचारक दृष्टिकोण कुछ हद तक विवादास्पद भी था, खासकर जब उसने कांग्रेस और अन्य धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों के खिलाफ अपने विचार व्यक्त किए। संघ ने 1970 और 1980 के दशक में अपनी विचारधारा को और अधिक सशक्त किया और इसके नेतृत्व में कई महत्वपूर्ण घटनाएं घटीं, जिनमें प्रमुख राम मंदिर आंदोलन (1980) शामिल है।
1990 के दशक में बदलाव: भाजपा और एक नया स्वरूप
1990 के दशक में एक महत्वपूर्ण बदलाव आया जब आरएसएस ने भारतीय जनता पार्टी (BJP) को अपनी राजनीतिक शाखा के रूप में देखा। भाजपा का गठन भी आरएसएस की विचारधारा से प्रेरित था, और 1990 के दशक में भाजपा ने विभिन्न राज्य चुनावों में सफलता पाई। यह समय था जब राम मंदिर आंदोलन ने देश के राजनीतिक माहौल को प्रभावित किया और आरएसएस के विचारों को व्यापक स्तर पर प्रचारित किया। आरएसएस के लिए यह समय अत्यधिक प्रभावशाली था, क्योंकि इसने अपने संगठन को राजनीतिक रूप से सशक्त किया। 1998 में जब भाजपा ने केंद्र में सरकार बनाई, तो आरएसएस का प्रभाव राजनीतिक दृष्टि से अधिक स्पष्ट हुआ।
21वीं सदी में आरएसएस: सामाजिक कार्य और वैश्विक विस्तार
साल 2000 के बाद, आरएसएस ने खुद को केवल एक हिंदू राष्ट्रवादी संगठन तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उसने कई सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यों में भी अपनी भूमिका निभाई। उसकी गतिविधियों में शिक्षा, स्वास्थ्य, और ग्रामीण विकास से लेकर पर्यावरण संरक्षण तक कई पहलें शामिल हैं। इसके अलावा, आरएसएस ने अपनी उपस्थिति को वैश्विक स्तर पर भी फैलाया, खासकर भारतीय प्रवासी समुदायों में। आधुनिक समय में आरएसएस ने अपने संगठनों को और अधिक जनसमूहों तक पहुंचाने की कोशिश की है। इसके कार्यक्रमों और गतिविधियों में युवाओं की भागीदारी बढ़ी है और उसने डिजिटल मीडिया का भी इस्तेमाल किया है।
सौ सालों में कई बदलावों का सामना
आज के दौर में आरएसएस की विचारधारा और उसकी गतिविधियाँ राजनीतिक और सामाजिक विमर्श का एक प्रमुख हिस्सा बन चुकी हैं। हालांकि इसके कार्यों और विचारों को लेकर हमेशा विवाद रहे हैं, फिर भी उसकी स्वीकार्यता और प्रभाव को नकारा नहीं किया जा सकता। आने वाले दशकों में आरएसएस का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि वह अपनी सामाजिक और राजनीतिक रणनीतियों को किस दिशा में ले जाता है और समाज में बदलाव की मांगों के साथ कैसे सामंजस्य बैठाता है।आरएसएस ने पिछले सौ वर्षों में कई बदलावों का सामना किया है। उसकी यात्रा एक छोटे सांस्कृतिक संगठन से लेकर एक बड़े राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव वाले संगठन तक की रही है। लेकिन एक बात निश्चित है कि आरएसएस ने भारतीय समाज में एक स्थायी छाप छोड़ी है। यह देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले वर्षों में आरएसएस किस दिशा में आगे बढ़ता है और भारतीय राजनीति और समाज पर इसका क्या असर पड़ता है।